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________________ संयम-निर्वाहार्थ अल्पतर वस्त्र रखते हुए इस परीषह को सहन करते हैं, क्योंकि उनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं होते हैं तथा जो होते भी हैं वे भी बहुत जीर्ण-शीर्ण होते हैं, इसलिए उनको भी न्यूनाधिक अंशों में तृणादि-जन्य परीषह को अवश्य सहन करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त सूत्र की उक्त गाथा के पर्यालोचन से यह ध्वनि भी स्पष्ट निकल रही है कि अपवाद-मार्ग में भी संयमशील मुनि को जीर्ण और स्वल्पतर वस्त्रों के रखने का ही आदेश है। जब कि संयमशील मुनि को अपने शरीर के ऊपर किसी प्रकार का ममत्व ही नहीं तो फिर वस्त्रों की अधिक आवश्यकता का प्रश्न ही कहां रहा? अतः अपवाद-मार्ग में प्रवृत्त होते हुए भी उत्सर्ग मार्ग के लक्ष्य को कभी भूलना नहीं चाहिए। अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा । एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया ॥ ३५ ॥ आतपस्य निपातेन, अतुला भवति वेदना । . एवं ज्ञात्वा न सेवन्ते, तंतुजं तृणतर्जिताः || ३५ ॥ पदार्थान्वयः—आयवस्स—आतप के, निवाएणं-निपात से, अउला—बहुत, वेयणा-वेदना, हवइ—होती है, एवं इस प्रकार, नच्चा-जानकर, न सेवंति–सेवन नहीं करते, तंतुजं वस्त्र को, तणतज्जिया-तृणों से पीड़ित हुए। मूलार्थ—आतप अर्थात् गर्मी के पड़ने से बड़ी भारी वेदना उत्पन्न हो जाती है, ऐसा जानकर तृणों से पीड़ित होने पर भी मुनि वस्त्र आदि का सेवन नहीं करते। ___टीका—अत्यन्त गर्मी के कारण बड़ी भारी वेदना उत्पन्न हो जाती है यह जानकर भी संयमशील मुनि वस्त्रों का ग्रहण नहीं करते, किन्तु तृणों से पीड़ित होते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकार की वेदना को सहन करने से ही कर्मों का क्षय होगा, इसीलिए वे वस्त्रों का ग्रहण नहीं करते और परीषहों को ही हर्ष-पूर्वक सहन करने के लिए उद्यत रहते हैं। विचारशील साधु इस बात को खूब जानते हैं कि इस प्रकार के संयोगज कष्ट नरकों की उन भयंकर यातनाओं के आगे कुछ भी मूल्य नहीं रखते जो वेदनाएं इस आत्मा ने कई बार अनुभव की हैं। इस सहनशीलता में ही कर्मों की निर्जरा निहित है, जिससे भविष्य में इस आत्मा के लिए विकास की पूरी सम्भावना रहती है। इस प्रकार के विचारों से तृण-स्पर्श-जन्य परीषह को शान्तिपूर्वक सहन करने में ही वे महात्मा पुरुष अपना अधिक लाभ समझते हैं और इसीलिए वे किसी प्रकार के कष्ट के उपस्थित होने पर भी अपने निश्चय पर अटल रहते हैं एवं शूरवीरों की भान्ति उन कष्टों को सहन करते हैं। यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि गाथा में आए हुए 'आतप' शब्द का देहलीदीप-न्याय से ग्रीष्म और शरद् इन दोनों ऋतुओं के आतपों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिप्रेत श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 142 । दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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