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________________ प्रकार की विषमता को नहीं आने देता उस तपस्वी का श्रामण्य - साधुता अधिक उज्ज्वल और प्रशंसनीय है, यही इस गाथा का स्पष्ट अभिप्राय है । वही सच्चा साधु है जो कि रोगादि की निवृत्ति के लिए औषधि - बल की अपेक्षा अपने आत्मबल को ही प्राधान्य दे रहा है और उसी आत्मबल के द्वारा उसकी निवृत्ति का इच्छुक है। (१७) तृण स्पर्श-परीषह रोगादि से पीड़ित हुआ साधु तृणादि में शयन करता हुआ तृणादि के स्पर्श से उत्पन्न परीषह का अनुभव करने लगता है, इसलिए अब सतरहवें तृण-स्पर्श नाम के परीषह का उल्लेख किया जाता ---- अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवसिणो । तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय - विराहणा ॥ ३४ ॥ अचेलकस्य रूक्षस्य, संयतस्य तपस्विनः । तृणेषु शयानस्य, भवेद् गात्र-विराधना || ३४ ॥ पदार्थान्वयः—अचेलगस्स — वस्त्र से रहित, लूहस्स– रूक्षवृत्ति वाले, संजयस्स - संयत, तवसिणो— तपस्वी को; तणेसु—तृणों में, सयमाणस्स - शयन करते समय, गाय - विराहणा - शरीर की विराधना, हुज्जा — होती है । मूलार्थ - वस्त्र से रहित और रूक्ष वृत्ति वाले तपस्वी साधु के शरीर को तृणों पर शयन करते समय पीड़ा होती है। टीका—इस गाथा में वस्त्र - रहित और रूक्ष-वृत्ति वाले तपस्वी मुनि के तृण आदि पर बैठने व सोने पर जिस तृण-स्पर्श जन्य कष्ट का उल्लेख किया गया है वह सब जिन - कल्प को लक्ष्य में रखकर ही किया गया है, क्योंकि तृण - कण्टक आदि से उत्पन्न सम्पूर्ण परीषह प्रायः उन्हीं को हुआ करते हैं । इसी दृष्टि से प्रस्तुत गाथा में उसके लिए 'अचेलगस्स' – वस्त्ररहित यह विशेषण दिया गया है, क्योंकि जो वस्त्र रखने वाले साधु हैं, उनको तो तृणादि के स्पर्शजन्य परीषह सर्व प्रकार से उपस्थित ही नहीं हो सकते, अर्थात् वस्त्र वालों को तृणादि का स्पर्श सर्वतोभाव से बाधाकारक नहीं हो सकता । रूक्ष-वृत्ति के लिखने का अभिप्राय यह है कि जो साधक रूक्ष-वृत्ति वाला नहीं है, वह तृणादि के ऊपर शयन भी नहीं करता एवं गाथा में दिया गया 'असंयत' शब्द असंयतों— असंयमियों को अपने से पृथक् कर रहा है, क्योंकि जो असंयत — गृहस्थ हैं, वे तो शुष्क - हरित — सूखे और हरे सभी प्रकार तृणों का ग्रहण कर सकते हैं, इसलिए उनके लिए गात्र - विराधना के अनुभव की सम्भावना प्रतीत नहीं होती । इसका तात्पर्य यह है कि उक्त गाथा में जो कुछ लिखा गया है वह सब जिन कल्पी साधक को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है और जो स्थविर - कल्पी साधक हैं वे तो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 141 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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