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________________ जिन सूत्रों में चारित्र-विधि की पूर्ण व्याख्या की गई है वे चरणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं यथा आचारांगादि अंगसूत्र चरणानुयोग कहे जाते हैं एवं जिन सूत्रों में धर्म की व्याख्या की गई है, वे धर्मानुयोग के नाम से प्रसिद्ध हैं। धर्मानुयोग में उत्तराध्ययनादि प्रकीर्ण ग्रन्थों का समावेश होता है। दुर्गति में पड़ते हुए प्राणी को सुगति में ले जाने वाले तत्त्व का नाम धर्म है। इसी प्रकार जिन सूत्रों में गणित-विषय का उल्लेख किया गया है, वे गणितानुयोग के अन्तर्गत हैं, यथा सूर्य-प्रज्ञप्ति आदि सूत्र । इन सूत्रों में गणित विषय का विशेष उल्लेख है और जिन सूत्रों में धर्मादि द्रव्यों का विवेचन किया गया है, उन्हें द्रव्यानुयोग कहते हैं। दृष्टिवादांग की इसी अनुयोग में गणना की जाती है। यद्यपि वर्तमान काल में उपलब्ध होने वाले सूत्रग्रन्थों में चारों अनुयोगों के पाठ मिलते हैं, परन्तु उक्त कथन उत्सर्ग सापेक्ष है, अर्थात् उत्सर्ग-मार्ग को अवलम्बन करके कथन किया गया है और अपवाद-मार्ग में तो प्रत्येक सूत्र में चारों अनुयोगों का वर्णन विद्यमान रहता है, इसलिए प्रत्येक अनुयोग की प्रधानता को लेकर उक्त प्रकार का उल्लेख समुचित ही है। ____ऊपर बताया गया है कि ये चारों अनुयोग उत्तरोत्तर प्रधानता को लिए हुए हैं, अर्थात् चरणानुयोग से धर्मानुयोग प्रधान है, और धर्मानुयोग से गणितानुयोग विशिष्ट है। एवं गणितानुयोग की अपेक्षा द्रव्यानुयोग महत्व वाला है। इस प्रकार सबसे अधिक बलवत्ता द्रव्यानुयोग की मानी गई है, -गार्थमेवोपादानात्, पूर्वोत्पन्नसंरक्षणार्थमपूर्वप्रतिपत्त्यर्थं च शेषानुयोगा अस्यैव वृत्तिभूताः। यथाहि कर्पूरवनखंडरक्षार्थं वृत्तिरूपादीयते, तत्र हि कर्पूरवनखंडं प्रधानं, न पुनर्वृत्तिः। एवमत्रापि चारित्ररक्षणार्थं शेषानुयोगानामुपन्यासात्। तथा चाह-"चारित्तरक्खणट्ठा जेणियरे तिन्नि अणुओगा" चयरिक्तीकरणाच्चारित्रं, तस्य रक्षणं तदर्थं चारित्ररक्षणार्थं येन प्रकारेण “इतरे" इति धर्मानुयोगादयस्त्रयोऽनुयोगा इति । (३) एवं व्याख्याते सत्याह—कथं चारित्ररक्षणमिति चेतदाह-चरणपडिवत्तिहेउं.....। चर्यत इति चरणं व्रतादिः। तस्य प्रतिपत्तिश्चरणप्रतिपत्तिः। चरणप्रतिपत्तेः हेतुः कारणं निमित्तमिति पर्यायाः। किं तदाह—“धर्मकथा" दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसंघातं धारयतीति धर्मस्तस्य कथा-कथनं धर्मकथा। चरणप्रतिपत्तेर्हेतुर्धर्मकथा । तथाहि-आक्षेपण्यादिधर्मकथाऽऽक्षिप्ताः सन्तो भव्यप्राणिनश्चारित्रमवाप्नुवन्ति “कालदिक्खमाईयत्ति" कलनं कालः कलासमूहो वा कालस्तस्मिन् काले दीक्षादयः। दीक्षणं दीक्षा प्रव्रज्याप्रदानं, आदिशब्दादुपस्थापनादिपरिग्रहः। तथा च शोभनतिथिनक्षत्रमुहूर्तयोगादौ प्रव्रज्याप्रदानं कर्त्तव्यम् । अतः कालानुयोगोऽप्यस्यैव परिकरभूतः इति । “दविएति" द्रव्ये द्रव्यानुयोगे किं भवति ? इत्यत आह—“दर्शनशुद्धिः" दर्शनं सम्यगदर्शनमभिधीयते, तस्य शुद्धिः निर्मलता-दर्शनशुद्धिः । एतदुक्तं भवति, द्रव्यानुयोगे सति दर्शनशुद्धिर्भवति, युक्तिभिर्यथाऽवस्थितार्थपरिच्छेदात् । तदत्र चरणमपि युक्त्यनुगतमेव ग्रहीतव्यं, न पुनरागमादेव केवलादिति। आह—दर्शनशुद्धयैव किम् ? तदाह-"दर्शनशुद्धस्य" दर्शनं शुद्धं यस्यासौ दर्शनशुद्धस्तस्य "चरणं" चारित्रं भवतीत्यर्थः । तु शब्दो विशेषणे, चारित्रशुद्धस्य दर्शनमिति। १. अनुयोगः इति कः शब्दार्थः ? उच्यते—श्रुतस्य स्वेनार्थेनानुयोजनम्—अनुयोगः, अथवा सूत्रस्याभिधेय व्यापारो योगः, अनुरूपः अनुकूलो वा योगः अनुयोगः, अथवा अर्थतः पश्चादभिधानात् स्तोकत्वाच्च सूत्रमनु तस्याभिधेयेन योजनमनुयोगः। (इति विनयाध्ययने चूर्णीकारः) श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 12 । प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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