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________________ परन्तु ऐसा मानने पर चरणानुयोग सबसे लघु अर्थात् कम महत्व वाला ठहरता है। तब तो उसका सबसे प्रथम निर्देश करना असंगत होगा, क्योंकि सब से प्रथम निर्देश प्रधान का ही किया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि द्रव्यानुयोग को सब से अधिक प्रधानता प्राप्त है तो प्रथम उसी का निर्देश करना चाहिए था। इस आक्षेप के समाधानार्थ आचार्यों ने उत्तर की दूसरी गाथा का उल्लेख किया है। आचार्य कहते हैं कि उक्त कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि इन चारों अनुयोगों में एक कम और दूसरा अधिक महत्व वाला है, किन्तु ये चारों ही अनुयोग अपने-अपने विषय में प्रधान और महत्वशाली हैं। चरणानुयोग का प्रथम निर्देश करने का अभिप्राय उसकी मुख्यता का द्योतन करना ही है। तात्पर्य यह है कि चरणानुयोग अंगी और शेष तीनों अनुयोग उसके अंगभूत हैं। अथवा यों कहिये कि चरणानुयोग की रक्षा के लिए ही शेष के तीन अनुयोग प्रतिपादन किए गए हैं, अतः चरणानुयोग चारित्र-प्रधान है और धर्मकथा, गणित तथा द्रव्य ये तीनों चारित्र के वृत्तिभूत संरक्षक होने से गौण हैं। ___लोक में भी देखा जाता है कि जो रक्षणीय होता है उसे ही प्रधान कहा व माना जाता है। तात्पर्य यह है कि जैसे कर्पूर-वन-खंड की रक्षा के लिए वृत्ति (बाड़) की अत्यन्त आवश्यकता होती है, कारण कि उसके बिना वह सुरक्षित नहीं रह सकता। परन्तु इससे वृत्ति (बाड़) को प्रधान नहीं माना जा सकता। प्रधानता तो कर्पूरवनखंड को ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार चारित्र-संरक्षणार्थ वर्णन किए गए बाकी के तीनों अनुयोग आवश्यक होने पर भी उनमें प्रधानता चारित्र की ही मानी जाती है। कर्मों के संचय को-कर्मों के समूह को आत्मा से पृथक् करने का सामर्थ्य विशेषरूप से चारित्र में ही है। अतः “चयरिक्तीकरणाच्चारित्रं'—कर्मों के संचय को रिक्त करने—आत्मा से पृथक् करने वाले तत्त्व का नाम चारित्र है। यह चारित्र शब्द की निरुक्ति सार्थक ही की गई है। तीसरी गाथा में धर्मादि अनयोगों की चारित्रसंरक्षणता का वर्णन है, अर्थात् धर्मकथा, गणित और द्रव्य ये तीनों अनुयोग चारित्र की रक्षा किस प्रकार से करते हैं, इस बात का उल्लेख किया गया है। धर्मकथानुयोग के द्वारा चारित्र में दृढ़ता सम्पादन की जाती है, अर्थात् मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को धर्मसम्बन्धी कथाओं के द्वारा चारित्र में आरूढ़ किया जाता है जिससे कि उनके चारित्र में उत्तरोत्तर निर्मलता और जीवनसहभावित्व का संचार हो सके। इसी हेतु से धर्मानुयोग को चारित्र का रक्षक माना गया है। इसी भांति गणितानुयोग भी चारित्र का परम सहायक माना गया है, कारण कि दीक्षा-ग्रहण में तिथि, नक्षत्र, योग ओर मुहूर्तादि की शुद्धि का जो विचार किया जाता है, जिससे कि ग्रहण की हुई दीक्षा निर्विघ्नतया सम्पन्न हो सके, यह सब गणितानुयोग पर ही निर्भर है। तीसरा द्रव्यानुयोग है जो कि चारित्र-रक्षकों में सब से अग्रसर है। कारण कि चारित्रनिष्ठा के लिये दर्शनशुद्धि की नितान्त आवश्यकता है और दर्शनशुद्धि अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति जीवाजीवादि द्रव्यज्ञान की अपेक्षा रखती है, अर्थात् जब तक मुमुक्षु आत्मा को जीवाजीवादि द्रव्यों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक उसको यथार्थ रूप से सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः दर्शनशुद्धि के लिए जीवाजीवादि द्रव्यों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षु जीव के लिए परम आवश्यक है और जिसका श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 13 । प्रस्तावना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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