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से, दुहट्टिए दुखी हुआ, अदीणो—दीनता-रहित, पन्नं—प्रज्ञा, थावए स्थापन करे, पुट्ठो—स्पर्शित हुए रोगादि के तब, तत्थ—वहां, अहियासए दुख को सहन करे । ___ मूलार्थ उत्पन्न हुए दुख को जानकर वेदना से दुःखी हुआ साधु अपनी आत्मा में दीनता-रहित बुद्धि को स्थापित करे और स्पर्शित होने वाले दुख को समता-पूर्वक सहन करे । ____टीका—इस गाथा में ज्वर आदि रोग-जन्य असह्य वेदना को साधु समतापूर्वक सहन करे और उसकी भयंकर वेदना से किसी प्रकार की विह्वलता को धारण न करे, इस बात की चर्चा की गई है। साधु को यदि कोई ज्वर आदि रोग हो जाए अथवा उसके शरीर में कोई तीव्र वेदना-युक्त व्रण व शोथ आदि किसी भयंकर रोग की उत्पत्ति हो जाए तो संयमशील साधु को चाहिए कि इस दीनताजन्य वेदना में अपनी बुद्धि को स्थिर रखने का प्रयत्न करे तथा व्रण आदि से जन्य वेदना से एकदम घबरा न उठे, किन्तु वेदना को अपने पूर्व कर्मों का विपाक समझकर उसे धैर्य-पूर्वक सहन करे। इसी प्रकार के सात्विक आचरण से रोग-परीषह पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इस आत्मा ने अनादिकाल से ही अनेक बार अनेक प्रकार के कर्म-जन्य शारीरिक और मानसिक कष्टों का अनुभव किया है और करता है तथा वर्तमान समय में जो कष्ट उत्पन्न हो रहा है उसका कारण भी असातावेदनीय कर्म का उदय है। इसलिए संसार में इस जीव को जितनी-जितनी भी दुख-परम्परा का अनुभव करना पड़ता है, वह सब इसके अपने ही उपार्ज़म किए हुए अशुभ कर्मों का विशेष परिणाम है। अतः रोगादिजन्य वेदना को अवश्य भोक्तव्य समझकर संयमशील साधु इससे कभी व्याकुल न हो, किन्तु समता-पूर्वक सहन करने का प्रयत्न करे, इसी में उसके संयम की दृढ़ता और उज्ज्वलता है। इसी आशय से उक्त गाथा में 'अदीनःस्थापयेत् प्रज्ञां' यह पाठ दिया गया है, जिसका तात्पर्य जैसा कि ऊपर बताया गया है यही है कि शरीर में कैसा भी भयंकर रोग उत्पन्न हो जाए तो भी साधु उस समय किसी प्रकार की व्याकुलता को धारण न करे, किन्तु आलोचना आदि के द्वारा अपनी आत्मा की विशुद्धि करने का ही प्रयत्न करे तथा कर्मजन्य परिस्थिति की पर्यालोचना करता हुआ इन रोगादि को अपना उपकारी जाने एवं इन रोगादि को जरा और मृत्यु का आमन्त्रण समझकर उसके लिए सावधान रहने की कोशिश करे, यही इस गाथा में साधु के लिए शिक्षा दी गई है। अब रोगादि की वृद्धि हो जाने पर औषधि आदि के विषय में कुछ जानने योग्य बातें कहते हैं
तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खऽत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जंन कुज्जा न कारवे ॥३३॥ चिकित्सां नाभिनन्देत्, संतिष्ठेदात्मगवेषकः ।
एवं खलु तस्य श्रामण्यं, यन्न कुर्यात् न कारयेत् ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः तेगिच्छं चिकित्सा रोग के प्रतिकार का, नाभिनंदेज्जा—अनुमोदन न करे, संचिक्ख–समाधि में रहे, अत्तगवेसए—आत्मा की गवेषणा करने वाला, एवं—यह, खु–निश्चय, __
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 139 | दुइअं परीसहज्झयणं