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________________ प्रकार, पडिसंचिक्खे विचार करता है, तं—उसको, अलाभो—अलाभ-परीषह, न तज्जए—पीड़ित नहीं करता। मूलार्थ—“आज मुझे आहार नहीं मिला, सम्भव है कल को मिल जाए" जो साधु इस प्रकार का विचार करता है उसको अलाभ-परीषह कष्ट नहीं देता। ____टीका—इस गाथा में बताया गया है कि साधु आहार के न मिलने पर भी किसी प्रकार की दीनता का अनुभव न करे, किन्तु आशावादी बनता हुआ अपने संयम में दृढ़ रहने का प्रयल करे। अपनी साधुवृत्ति के अनुसार समय पर भिक्षा के लिए जाने पर भी साधु को यदि कहीं से निर्दोष-शुद्ध आहार की प्राप्ति न हो सके तो वह मन में किसी प्रकार से उदास न हो, किन्तु धैर्य और स्थिरतापूर्वक इस भाव को मन में रखता हुआ कि आज अगर मुझे आहार नहीं मिला तो न सही, कल मिल जाएगा, कल न सही परसों मिल जाएगा—वापस आ जाए। इस प्रकार का विचार रखने वाला साधु उक्त अलाभ-परीषह से कभी कष्ट नहीं पाता। ___ इस सारे कथन का तात्पर्य केवल इतना ही है कि साधु को आहार के न मिलने पर अथवा पर्याप्त न मिलने पर अपने मन में किसी प्रकार की चिन्ताजनक ग्लानि उत्पन्न नहीं करनी चाहिए, किन्तु यथालाभ में सन्तुष्ट रहकर अपने आत्मा को संयम में दृढ़ रखने का ही प्रयत्न करना चाहिए | तात्पर्य यह है कि आहार के मिल जाने अथवा न मिलने पर भी साधु के शुद्ध परिणामों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आना चाहिए, इसी में उसके त्याग और व्रत की सार्थकता है तथा आहार आदि अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का होना अथवा उसके लिए प्रयत्न करने पर भी उसका न मिलना, यह सब कुछ अपने पूर्व कर्मों के नियम पर ही अवलम्बित है, इसलिए यदि लाभान्तराय कर्म के उदय से आज आहार नहीं मिला तो कल उसके टूटने पर मिल जाएगा। इत्यादि विचार-विमर्श से अपनी आत्मा को सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने वाला साधु अलाभ-परीषह से कभी भी अपनी आत्मा को पराजित नहीं कर सकता। (१६) रोग-परीषह ___ यदि अलाभ-परीषह के उदय से स्वल्पतर अनिष्ट आहारादि की प्राप्ति हो तो उसके निरन्तर सेवन से रोगादि के उत्पन्न होने की अधिक सम्भावना हो जाती है, इसीलिए अब सोलहवें रोग-परीषह का वर्णन किया जाता है नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए । अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थऽहियासए ॥ ३२ ॥ ज्ञात्वोत्पतितं दुःखं, वेदनया दुःखार्दितः । अदीनः स्थापयेत् प्रज्ञां, स्पृष्टस्तत्राधिसहेत || ३२ ॥ पदार्थान्वयः–नच्चा–जान करके, उप्पइयं—उत्पन्न हुए, दुक्खं दुख को, वेयणाए—वेदना श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 138 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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