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परेषु ग्रासमेषयेत् भोजने परिनिष्ठिते ।
- लब्धे पिण्डे अलब्धे वा, नानुतप्येत पण्डितः ॥ ३०॥ पदार्थान्वयः—परेसु-गृहस्थों के घरों में, घासं—आहार की, एसेज्जा—गवेषणा करे, भोयणे—भोजन, परिणिट्ठिए—निष्पन्न होने पर, लद्धे पिंडे—आहार के मिलने पर, वा—अथवा, अलद्धे न मिलने पर, पंडिए-पंडित पुरुष, नाणुतप्पेज्ज–पश्चात्ताप न करे ।
मूलार्थ गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर साधु भिक्षा के लिए जाए, परन्तु वहां से आहार मिलने पर हर्ष और न मिलने पर विवेकशील साधक मन में किसी प्रकार का शोक न करे।
टीका—इस गाथा में साधु को समय पर भिक्षा के लिए जाने का तथा भिक्षा की प्राप्ति में हर्ष और अप्राप्ति में विषाद के त्याग का उपदेश दिया गया है। संयमशील साधु को उचित है कि वह समय पर ही गृहस्थों के घरों में गोचरी के लिए जाए। समय से पहले जाने पर संभव है कि रागवशात् गृहस्थ साधु के निमित्त किसी सावध क्रिया में प्रवृत्त हो जाए और बाद में जाने पर किसी अमक प्रकार के अपवाद की सम्भावना का होना भी कोई अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। इसलिए साधु को समय पर ही आहार के लिए जाना चाहिए। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए उक्त गाथा में 'परिणिट्ठिए'–परिनिष्ठित' शब्द का प्रयोग किया गया है।
समय पर जाने से यदि साधु को अच्छा आहार मिल जाए तो वह उसको प्राप्त कर मन में किसी प्रकार की प्रसन्नता प्रकट न करे और न ही इस बात पर गर्व करे कि इस प्रकार का जो अच्छा आहार मुझ को मिला है यह मेरे पुण्य का प्रभाव है तथा आहार के न मिलने पर अथवा अच्छे स्वादिष्ट भोजन के न मिलने पर मन में किसी प्रकार का विषाद न करे, किन्तु समय पर जैसा भी स्निग्ध-रुक्ष मिल जाए उसे ही उदरपूर्ति के निमित्त ग्रहण करके अपने संयम का निर्वाह करे। साधु के लिए तो आहार का अच्छापन उसकी प्रासुकता—निर्दोषता पर ही अवलम्बित है। तात्पर्य यह है कि उत्तम आहार वही है जो कि प्रासुक–निर्दोष हो और अप्रासुक आहार वह है जो कि आधाकर्म आदि दोषों से युक्त है। फिर चाहे वह कितना ही सुन्दर और स्वादिष्ट क्यों न हो, परन्तु साधु के लिए कदापि ग्राह्य नहीं है।
अस्तु, समय पर जाने से भी यदि आहार की प्राप्ति न हो सके तो साधु को उस समय पर क्या विचार करना चाहिए , अब इस विषय का वर्णन किया जाता है
अज्जेवाहं न लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया । जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए ॥ ३१॥
अद्यैवाहं न लभे, अपि लाभः श्वः स्यात् ।।
य एवं प्रतिसमीक्षेत, अलाभस्तं न तर्जयेत् ॥ ३१ ॥ .. .. पदार्थान्वयः–अज्जेव—आज ही, अहं—मुझे, न लब्भामि—आहार नहीं मिला है तो, अवि—सम्भव है कि, सुए—कल दिन, लाभो—लाभ, सिया–हो जाए, जो–जो साधु, एवं इस |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 137 / दुइअं परीसहज्झयणं