________________
यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार शास्त्रकार ने साधु को अपने मुनिधर्म में दृढ़ रहने का आदेश दिया है, उसी प्रकार उपलक्षणतया 'गिहिधम्मं विचिंतए' के अनुसार गृहस्थ को भी अपने निजी कर्त्तव्य में पूर्णतया सावधान रहने का उपदेश दिया गया है। तात्पर्य यह है कि आपत्तियों के आ जाने पर श्रावक सदैव केवलि-भाषित धर्म का चिन्तन करे, अपने सत्य और सन्तोष रूप धर्म का पालन करे, और शास्त्र-विहित अपने धर्म का विचार करे, क्योंकि शास्त्र-विहित मर्यादा के अनुसार अपने धर्म का पालन करना साधु और गृहस्थ दोनों का समान कर्तव्य है। अब इसी विषय को प्रकारान्तर से कहते हैं
समणं संजयं दंतं, हणिज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्स नासु त्ति, एवं पेहेज्ज संजए ॥ २७ ॥
श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रचित् ।...
नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ॥२७॥ पदार्थान्वयः–समणं श्रमण, संजयं—संयत, दान्तं—दन्त को, कोइ-कोई, कत्थई—किसी स्थान पर भी, हणिज्जा—मारे, जीवस्स—जीव का, नासु-नाश, नत्थि—नहीं होता, एवं इस प्रकार, संजए–साधु, पेहेज्ज-विचार करे, त्ति इति पादपूर्ति के लिए।
मूलार्थ इन्द्रियों का दमन करने वाले संयमशील साधु को यदि किसी स्थान पर कोई मारे तो वह साधु इस प्रकार का विचार कर शान्त भाव से रहे कि 'जीव'का तो कभी नाश होता ही नहीं और यह जो शरीर है, वह तो वास्तव में मेरा है ही नहीं।' ___टीका—सर्व प्रकार के आरम्भ-समारम्भ के त्यागी संयमशील परम तपस्वी साधु को यदि कोई अनार्य दुष्ट पुरुष ताड़ना करने के अलावा किसी स्थान पर वध करने के लिए भी उद्यत हो जाए तो साधु मुनिराज उसके प्रतिकार करने का कभी संकल्प न करे, किन्तु उसके इस अति नीच एवं जघन्यतम व्यवहार को देखकर अपने उत्कृष्ट मुनि-धर्म में स्थिर रहकर शान्त भाव से विचारे कि वह व्यक्ति मेरे ज्ञानस्वरूप आत्मा का तो किसी प्रकार भी विनाश नहीं कर सकता, यह तो केवल जड़ शरीर को ही हानि पहुंचा सकता है। यह शरीर वास्तव में मेरा है ही नहीं और न इसने सदा रहना ही है, किसी-न-किसी निमित्त से इसका विनाश अवश्यंभावी है। सम्भव है इसी व्यक्ति के द्वारा इस विनश्वर शरीर का अन्त होना हो, फिर इसमें चिन्ता और शोक किस बात का? एक न एक दिन तो इसका अन्त होकर ही रहना है। इस प्रकार से मुनिधर्मोचित आचार की विशुद्ध भावना से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ साधु उक्त वध-परीषह को दृढ़ता-पूर्वक सहन करे । __यहां पर गाथा में जो ‘संजयं' पद दिया गया है, उसका अर्थ निरन्तर यत्न करने वाला है। जो साधक निरन्तर यल करने वाला होगा, वही सम्यक् प्रकार से परीषहों को सहन करने वाला भी हो सकेगा, प्रस्तुत गाथा का यही अर्थ ध्वनित होता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 134 / दुइअं परीसहज्झयणं ।