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________________ 'जीव का नाश नहीं होता,' इस कथन से आत्मा को अजर और अमर बताते हुए उत्पत्ति और विनाश को शरीर का धर्म बताया गया है, जिससे कि वध - परीषह की उपस्थिति में मुनि को आत्मा के यथार्थ-स्वरूप का बराबर भान रहे और वह वध - परीषह पर विजय प्राप्त करने में सफल हो, जैसे कि स्वनाम - धन्य श्री गजसुकुमार और प्रदेशी राजा सफल हुए थे । (१४) याचना - परीषह वध परीषह के अनन्तर फिर याचना - परीषह सम्भाव्य होता है, इसलिए अब याचना नाम के चौदहवें परीषह का वर्णन किया जाता है— दुक्करं खलु भो! निच्चं, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ॥ २८ ॥ दुष्करं खलु भो! नित्यं, अनगारस्य भिक्षोः । सर्वं तस्य याचितं भवति, नास्ति किंचिदयाचितम् ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः - भो— हे साधक वर्ग ! दुक्करं - दुष्कर है, खलु — निश्चय ही, निच्चं- -सदा, अणगारस्स — अनगार, भिक्खुणो— साधु को, सव्वं - सब, से—– उसका, जाइयं— मांगा हुआ, होइ — है, नत्थि — नहीं, किंचि - किंचिन्मात्र, अजाइयं – बिना मांगा हुआ । मूलार्थ --- हे साधक वर्ग ! साधु का आचार बड़ा ही दुष्कर है, उसके उपकरण आदि सभी वस्तुएं मांगी हुई हैं, मांगे हुए के बिना उसके पास कुछ भी नहीं है । टीका - इस गाथा में साधु-चर्या में होने वाली निरन्तर याचना के द्वारा उसकी साधुचर्या की दुष्करता का वर्णन किया गया है । साधुवृत्ति इसलिए दुष्कर है कि उसमें याञ्चावृत्ति आयु पर्यन्त बराबर बनी रहती है। साधु के पास संयम निर्वाहार्थ जितने भी वस्त्र, पात्र आदि उपकरण हैं, वे सब गृहस्थों से मांगे हुए होते हैं, बिना मांगी उसके पास एक भी वस्तु नहीं होती । यह याञ्चावृत्ति उसके साथ जीवन पर्यन्त लगी रहती है। इसी पराधीनता को लेकर साधु-धर्म का अनुष्ठान दुष्कर माना गया हैं। इसका अभिप्राय यह है कि संयम-निर्वाह के लिए प्रतिदिन अथवा कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर नितान्त उपयोगी पदार्थ की याचना करने में साधु किसी प्रकार की लज्जा अथवा संकोच न करे । अब फिर इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैंगोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी नो सुप्पसारए सेओ अगारवा त्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ २६॥ गोचराग्रप्रविष्टस्य, पाणिः न सुप्रसार्य: । श्रेयानगारवास इति, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः – गोयरग्गपविट्ठस्स — भिक्षाचरी में प्रवेश किए हुए का, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 135 / दुइअं परीसहज्झयणं पाणी - हाथ, नो— नहीं,
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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