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साधु उनकी ओर ध्यान न दे, किन्तु उपेक्षा ही कर दे तथा कठोर शब्दों के द्वारा बोलने पर भी साधु सदा मौन ही धारण किए रहे । एवं कठोर शब्द कहने वाले व्यक्ति के ऊपर किसी प्रकार का मानसिक द्वेष न करे, किन्तु अपने समभाव में स्थित रह कर आत्म-कल्याण की ओर ही ध्यान रखे। इसी से वह आक्रोश नाम के परीषह पर विजय प्राप्त कर सकता है, अन्यथा कठोर शब्द कहने वाले पर क्रोध करने से आत्मा में कषाय की वृद्धि से मलिनता के बढ़ने की ही अधिक संभावना रहती है। इसलिए साधु पुरुष को वाणी द्वारा अपकार करने वाले पर भी उपकार की ही भावना रखनी आवश्यक है।
(१३) वध-परीषह जब कोई क्षुद्र व्यक्ति कोसने आदि से तृप्त नहीं होता, अर्थात् इतने पर भी उसके मन को विश्राम नहीं मिलता, तब वह मारने-पीटने पर उतारू हो जाता है, इसलिए अब वध नाम के १३वें परीषह का वर्णन किया जाता है—
हओ न संजले भिक्खू, मणं पि न पओसए । तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खू धम्मं विचिंतए ॥२६॥
हतो न संज्वलेद् भिक्षुः, मनोऽपि न प्रद्वेषयेत् ।
तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, भिक्षुधर्मं विचिन्तयेत् ॥ २६॥ । पदार्थान्वयः—हओ-मारा हुआ, भिक्खू–साधु, न संजले—क्रोध न करे, मणंपि—मन को भी, न पओसए—उसके निमित्त से दूषित न करे, तितिक्खं—क्षमा को, परमं—उत्कृष्ट, नच्चा–जान करके, भिक्खू-मुनि, धम्मं धर्म का, विचिंतए–चिन्तन करे। . ___ मूलार्थ—मार खाया हुआ साधु मारने वाले पर क्रोध न करे, सूक्ष्म क्रोध से भी मन को दूषित न करे, किन्तु क्षमा को उत्कृष्ट जानकर अपने मुनि-धर्म का ही चिन्तन करे। ___टीका—इस गाथा में संयमशील साधु को पूर्णरूप से शान्त रहने का उपदेश दिया गया है, अर्थात् यदि कोई मूर्ख पुरुष साधु को दंडादि से भी ताड़न करे, तो साधु वाणी से तो क्या, मन से भी उस मारने वाले का अनिष्ट चिन्तन न करे, इसी में उसके उत्कृष्ट क्षमा धर्म के आचरण का महत्त्व है। क्षमा ही साधु का सर्वोपरि आचरणीय धर्म है, इसलिए वीतराग देव के धर्म में आरूढ़ होने वाले मुनि को दूसरों के असभ्य और कुत्सित बर्ताव को भी बड़े शान्त भाव से सहन कर लेना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि किसी दुष्ट पुरुष के जघन्य व्यवहार से साधु को अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे समय में ही साधु की क्षमावृत्ति और सहनशीलता की परीक्षा होती है। यदि इस प्रकार के परीषह—कष्ट के उपस्थित होने पर साधु अपने क्षमा-धर्म से विचलित हो जाए तो उसकी उत्कृष्ट साधु-चर्या दूषित हो जाती है और उक्त परीषह पर विजय प्राप्त करने के बदले वह स्वयं पराजित हो जाता है, इसलिए ऐसे समय पर साधु को अपने क्षमा-धर्म से अणुमात्र भी विचलित नहीं होना चाहिए, यही उसकी दृढ़ साधुनिष्ठा की सच्ची कसौटी है। | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 133 । दुइअं परीसहज्झयणं
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