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________________ कथन का अभिप्राय यह है कि किसी साधु पुरुष को कोसना – उसकी निन्दा करना, केवल मूर्खता, का काम है। मूर्ख लोग ही इस प्रकार का जघन्य आचरण किया करते हैं । परन्तु साधु भी यदि उनके इस कुत्सित व्यवहार को देखकर अपनी शान्ति की मर्यादा को भंग करता हुआ उन पर क्रोध करने लग तो वह भी उनके समान ही मूर्खों की पंक्ति में गिना जाने लगेगा। इसलिए साधु पुरुष कभी भी क्रोध के आवेश में न आए, किन्तु कोसने वाले अन्य पुरुषों की मूर्खता को उपेक्षा की दृष्टि से देखता हुआ अपने समभाव में ही स्थिर रहने का प्रयत्न करे । जाए, इस सारे कथन का अभिप्राय यह है कि यदि कोई क्षुद्र व्यक्ति साधु की भर्त्सना करने लगे तो साधु को उस पर दया दर्शाते हुए सर्वथा शान्त रहना चाहिए और उसे विचार करना चाहिए कि यदि मेरे में कोई दोष है, तब तो यह सत्य कह रहा है फिर इस पर क्रोध कैसा ? और यदि यह मिथ्या ही मेरी निन्दा कर रहा है, तब यह अपने किए कर्म का फल स्वयं ही भोग लेगा, फिर मैं इस पर क्रोध. करके अपनी आत्मा को क्यों मलिन करूं ? इत्यादि विचार - परम्परा द्वारा अपने मन में आए हुए क्रोध के आवेश को शान्त करे, किन्तु अपनी आत्मा को क्रोध के वशीभूत कभी न होने दे, इसी में उसकी विजय है । यहां पर आक्रोश शब्द का अर्थ असभ्य भाषा का व्यवहार करना है, जैसे- इसको धिक्कार है, यह तो यों ही सिर मुंडाए फिरता है, इत्यादि । इस गाथा में विभक्ति का व्यत्यय प्राकृत के सुप्रसिद्ध नियम से जानना । यथा— 'तस्मै' के स्थान में षष्ठ्यन्त ‘तेसिं' और भिक्षु के स्थान पर ' भिक्खु' प्रथमान्त पद का प्रयोग है। तिरस्कार करने वाले पुरुष के सम्बन्ध में संयमशील साधु का किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिए, अब इस विषय पर और भी कहते हैं— सोच्चा णं फरुसा भासा, दारुणा गामकण्टगा । तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसी करें || २५ | श्रुत्वा खलु परुषा भाषाः, दारुणा ग्रामकण्टकाः । तूष्णीक उपेक्षेत, न ता मनसि कुर्यात् ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः – सोच्चा—सुन करके, णं – वाक्यालंकार में है, फरुसा – कठिन, भासा – भाषा, दारुणा — कठोर, गामकंटगा — ग्रामकंटक, तुसिणीओ — — मौनभाव, उवेहेज्जा — धारण करे किन्तु, ताओ — उन भाषाओं के बोलने वालों पर, मणसी मन से भी न करे – द्वेषादि न करे । ' मूलार्थ – दूसरों की इन्द्रियरूप ग्राम को दारुण और कंटक के समान चुभने वाली अति कठोर भाषा को सुनकर भी साधु मौन ही रहे, किन्तु उन कठोर शब्द बोलने वालों पर वचन से तो क्या मन से भी द्वेष न करे । टीका – किसी व्यक्ति द्वारा कहे गए अति कठोर - दारुण और चुभने वाले शब्दों को सुनकर श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 132 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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