SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मूलार्थ स्त्री-पशु-नपुंसक से रहित कल्याणकारी उपाश्रय को प्राप्त करके अथवा पापरूप उपाश्रय में ठहर कर साधु इस प्रकार का विचार करे कि यह उपाश्रय-स्थल एक रात्रि में मेरा क्या कर लेगा, ऐसा विचार करके वहां पर होने वाले शीत आदि के कष्ट को शांतिपूर्वक सहन करे। टीका साधु-वृत्ति के अनुकूल स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित जो उपाश्रय है, वह चाहे सुन्दर है, चाहे असुन्दर है, परन्तु इच्छा के अनुकूल नहीं है उसके मिल जाने पर उस समय साधु यह विचार करे कि एक रात्रि में यह उपाश्रय मेरा क्या बिगाड़ कर लेगा, इसलिए इसमें जो कुछ भी सुख अथवा दुख मुझे उपस्थित होगा उसे शान्ति-पूर्वक सहन करना ही मेरा परम धर्म है। ऐसा विचार करता हुआ साधु अपने संयम में ही दृढ़ रहने का प्रयत्न करे, किन्तु मन में किसी प्रकार की दीनता अथवा शोक सन्ताप न करे। ___ यहां पर उपाश्रय के लिए 'कल्याण' शब्द का प्रयोग किया गया है, इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि यदि नवीन, सुन्दर और अलंकृत उपाश्रय मिल जाए तो उसके मिलने से साधु अपने मन में किसी प्रकार का हर्ष न करे और धूलिधूसरित तृणयुक्त, अति पुराना मिल जाए तो भी मन में किसी प्रकार का शोक उत्पन्न न करे, किन्तु जैसा भी मिल जाए उसी में सन्तोष मानता हुआ उसमें रहने पर आने वाले सभी उपसर्गों को समता-पूर्वक सहन करने में ही अपने संयम की दृढ़ता का परिचय दे । इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में जो 'एक रात्रि निवास' का उल्लेख है, वह जिनकल्पी की अपेक्षा से है, स्थविरकल्पी तो एक से अधिक रात्रि भी रह सकता है, अथवा विहार-काल में स्थविर कल्पी के लिए भी इच्छानुकूल स्थान न मिलने से एक रात्रि की कल्पना युक्तिसंगत प्रतीत होती है। (१२) आक्रोश-परीषह शय्यापरीषह के पश्चात् अब बारहवें आक्रोश-परीषह का वर्णन करते हैं.. अक्कोसेज्जा परे भिक्खुं, न तेसिं पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥ २४ ॥ आक्रोशेत् परो भिडुं न तस्मै प्रतिसंज्वलेत् । सदृशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ॥ २४ ॥ पदार्थान्वयः परे—दूसरा कोई, भिक्खुं साधु को, अक्कोसेज्जा–आक्रोश करे, तेसिं—उसके ऊपर, न पडिसंजले-क्रोध न करे, क्योंकि, बालाणं—मूों के, सरिसो—समान, होइ—होता है, तम्हा—इसलिए, भिक्खू–साधु, न संजले-क्रोध न करे। ____- मूलार्थ कोई पुरुष साधु की निन्दा करे तो साधु उसके ऊपर क्रोध न करे, क्योंकि वह मूरों के समान हो जाता है, इसलिए अपने को कोसने वाले पर भी साधु कभी क्रोध न करे । टीका यदि कोई अन्य पुरुष साधु की निन्दा भी करने लगे, उसे कोसने भी लगे तो साधु को उसके ऊपर कभी क्रोध नहीं करना चाहिए, अपितु उसे शान्तिपूर्वक सहन कर लेना चाहिए। इस | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 131 | दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy