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________________ पदार्थान्वयः–—–— उच्चावयाहिं— ऊंची व नीची, सेज्जाहिं— शय्याओं से, तवस्सी- तप करने वाला, भिक्खु– साधु, थामवं— शक्तिसम्पन्न हो, अइवेलं – समय का अतिक्रमण, न–न, विहन्निज्जा — करे, पावदिट्ठी – पापदृष्टि साधु, विहन्नई - समय का उल्लंघन कर देता है । मूलार्थ — ऊंची-नीची शय्या आदि से साधु अपने स्वाध्याय आदि के समय का उल्लंघन न करें, अपितु तपस्वी साधु उक्त परीषह के सहन करने में अपने आपको शक्तिशाली बनाए, पापदृष्टि साधु ही समय का उल्लंघन कर देता है । टीका - शय्या का ऊंचापन शीत आदि का निवारक होता है और उसका नीचा होना शीत की TET का कारण है, परन्तु तपस्वी साधु किसी भी प्रकार की शय्या के उपलब्ध होने पर अपने आपको शीतादि के सहन में समर्थ बनाता हुआ अपने स्वाध्याय के लिए नियत समय का कभी उल्लंघन नहीं करता । पापदृष्टि साधु ही शय्या आदि की अनुकूलता को ढूंढता हुआ अपने स्वाध्याय के अमूल्य समय को यों ही व्यर्थ में खो देता है, इसलिए संयमशील साधु को चाहिए कि वह ऊंची-नीची शय्या आदि के विचार को सर्वथा छोड़ता हुआ अपने स्वाध्याय के समय विभाग को कभी हाथ से न जाने । तात्पर्य यह है कि शीत-उष्ण आदि के बचाव में अपने स्वाध्याय के समय को कभी न खोए, किन्तु शय्या आदि की कुछ भी परवाह न करता हुआ अपने स्वाध्याय में ही सदा रत रहे । यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि उक्त गाथा में शय्या के सम्बन्ध में जो ऊंच-नीच शब्द का प्रयोग किया गया है, वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से समझ लेना चाहिए। द्रव्य से ऊंचे प्रासाद आदि और भाव से इच्छानुकूल स्थान हैं। इसी प्रकार नीच शय्या के विषय में भी जान लेना चाहिए। सारांश यह है कि कैसा भी स्थान प्राप्त हो तथा कैसी भी शीत आदि की बाधा उपस्थित हो, परन्तु यतनाशील साधु अपने स्वाध्याय के नियम में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित न होने दे। इच्छानुकूल शय्या के प्राप्त न होने पर साधु को क्या करना चाहिए, अब इस विषय में और भी कहते हैं— पइरिक्कुवस्सयं लद्धुं, कल्लाणमव पावयं । किमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए ॥ २३ ॥ प्रतिरिक्तमुपाश्रयं लब्ध्वा, कल्याणमथवा पापकम् | किमेकरात्रं करिष्यति, एवं तत्राधिसहेत ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः – पइरिक्क—–— स्त्री- पशु- नपुंसक से रहित, उवस्सयं— उपाश्रय, लद्धुं प्राप्त करके, कल्ला —– सुन्दर, अदुव—- अथवा, पावयं - पापरूप — उपाश्रय, किं— क्या, एगरायं—– एक रात्रि प्रमाण काल में, करिस्सइ — करेगा, एवं - इस प्रकार, तत्थ — वहां पर, अहियासए - सुख-दुःख को सहन करे । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 130 / दुइअं परीसहज्झणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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