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गाथा में श्मशान भूमि आदि का जो उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि संयमशील साधुओं के लिए प्राय: ऐसे ही स्थानों में निवास करना उनकी संयम रक्षा के लिए उपयोगी होता है।। इसी विषय पर फिर कहते हैं
तत्थ से चिट्ठमाणस्स, उवसग्गाभिधारए । संकाभीओ न गच्छेज्जा, उद्वित्ता अन्नमासणं ॥ २१ ॥ . तत्र तस्य तिष्ठतः, उपसर्गानभिधारयेत् ।
शंकाभीतो न गच्छेत्, उत्थायान्यदासनम् || २१ ॥ पदार्थान्वयः–तत्थ—उन स्थानों में, से—उसके, चिट्ठमाणस्स—बैठे हुए को, उवसग्गाउपसर्गों को, अभिधारए–सहन करे, संकाभीओ-शंकाओं से भयभीत होकर, उठ्ठित्ता—उठ करके, अन्नं—अन्य, आसणं—आसन पर, न गच्छेज्जा—न जाए।
मूलार्थ—उपर्युक्त स्थानों में बैठे हुए साधु को यदि कोई उपसर्ग आ जाए तो साधु उसको सहन करे, किन्तु किसी प्रकार की शंका से भयभीत होकर वहां से उठकर अन्य स्थान पर न जाए।
टीका—श्मशान आदि निर्जन स्थानों में बैठे हुए ध्यानारूढ साधु को यदि किसी देव आदि का उपसर्ग उत्पन्न हो जाए तो ध्यान मग्न मुनि को उचित है कि वह उन उपसर्गों से भयभीत हो वहां से उठकर किसी अन्य स्थान में चले जाने का संकल्प न करे, किन्तु दृढ़ता-पूर्वक उन उपसर्ग आदि को सहन करे और समता-पर्वक उनका सामना करके उन पर विजय प्राप्त करे। यदि उपसर्ग आ भय से डरकर साधु अपने आसन से चलायमान हो जाए तो उसके स्वाध्याय और ध्यान आदि कृत्यों में बड़े भारी विघ्न आने की सम्भावना हो जाती है। विवेकशील साधु को उचित है कि किसी उपसर्ग के आने पर वह और भी दृढ़ता से अपने ध्यानादि में स्थिर रहने का प्रयत्न करे तथा उन उपसर्गों को अपनी परीक्षा का समय समझकर उनको तुच्छ समझता हुआ उन पर विजय प्राप्त करे, इसी में उसके संयम की दृढ़ता और उज्ज्वलता है। संयम में दृढ़ रहने वाले मुनि के आगे सर्व प्रकार की सिद्धियां हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं, इसलिए ध्यानारूढ़ मुनि किसी भी उपसर्ग से भयभीत न हो।
(११) शय्या-परीषह . नैषेधिकी के बाद जब साधु स्वाध्याय के निमित्त बस्ती में आता है तो उस समय प्रायः उसको शय्या-परीषह का सामना करना पड़ जाता है, इसलिए अब ग्यारहवें शय्या-परीषह का वर्णन करते
उच्चावयाहिं सेज्जाहिं, तवस्सी भिक्खु थामवं । नाइवेलं विहन्निज्जा, पावदिट्ठी विहन्नई ॥ २२ ॥ .उच्चावचाभिः शय्याभिः तपस्वी भिक्षुः स्थामवान् । नातिवेलं विहन्यात्, पापदृष्टिविहन्यति || २२ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 129 । दुइअं परीसहज्झयणं