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गाथा में आए हुए प्रथम 'असमानः' पद का अन्त की 'परिव्रजेत्' क्रिया के साथ सम्बन्ध करके उसका 'न समानः असमानः' अर्थात् जो अन्यतीर्थी साधु के समान न हो, ऐसा अर्थ भी सूत्रकार को अभिप्रेत है। इसका अभिप्राय यह है—जैसे बहुधा अन्य मतानुयायी साधु मुनि और परिव्राजक कहाते हुए भी अनेक मठों के स्वामी बन जाते हैं और स्थान आदि रखते हुए ही देश-विदेश में नाना प्रकार के द्रव्यादि के लाभ के लिए विचरण करते हैं। संयमशील साधु इस प्रकार का कभी आचरण न करे, क्योंकि उसने वीतराग देव के त्याग-प्रधान संयम-मार्ग को अपनाया हुआ है। आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार से सांसारिक पदार्थों का त्याग ही साधु-जीवन का मुख्य उद्देश्य है। इसके लिए उसे सबसे प्रथम अभिमान से रहित होना, परिग्रह का त्यागी होना और सर्व प्रकार के कुत्सित संग से सर्वथा दूर रहना परम आवश्यक है। इस प्रकार संयम में दृढ़ रहकर आयु-पर्यन्त साधु को विचरते रहना चाहिए।
(१०) नैषेधिकी परीषह जिस प्रकार जीवन-पर्यन्त साधु को चर्यापरीषह के सहन करने की शास्त्रकारों ने आज्ञा दी है, उसी प्रकार नैषेधिकी परीषह के लिए भी आज्ञा दी है, अतः अब नैषेधिकी नाम के दसवें परीषह के विषय में कहते हैं
सुसाणे सुन्नागारे वा, रुक्खमूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥ २०॥ ..
श्मशाने शून्यागारे वा, वृक्षमूले वा एककः ।
अकुक्कुचः निषीदेत्, न च वित्रासयेत् परम् ॥ २०॥ . पदार्थान्वयः–सुसाणे—श्मशान में, वा—अथवा, सुन्नागारे-शून्य घर में, वा–अथवा, रुक्खमूले–वृक्ष के मूल में, एगओ—अकेला ही, अकुक्कुओ—कुचेष्टाओं से रहित, निसीएज्जा—बैठे, न —नहीं, य—और, परं—परजीवों को, वित्तासए–त्रास देवे ।
मूलार्थ—साधु श्मशान में, शून्य घर में या वृक्ष के मूल में किसी प्रकार की भी कुचेष्टा को न करता हुआ राग-द्वेष से रहित होकर अकेला ही बैठे और किसी प्रकार से भी अन्य जीवों को त्रास न दे।
टीका—इस गाथा में साधु को हर प्रकार से अपने आपको संयत रखने का उपदेश दिया गया है, श्मशानभूमि में, शून्य मन्दिर में अथवा किसी वृक्ष के मूल में, अर्थात् किसी भी एकान्त स्थान में राग-द्वेष से रहित होकर अकेला बैठा हुआ साधु किसी प्रकार की कोई कुचेष्टा न करे और न किसी जीव को त्रास दे, क्योंकि ऐसा करने से एक तो मानसिक चंचलता की वृद्धि होती है, और दूसरे उसकी अहिंसक वृत्ति में भी बाधा पड़ने की सम्भावना बनी रहती है। क्योंकि जीवों को त्रास देना भी उनकी एक प्रकार की विराधना ही है। इसीलिए उक्त निर्जन प्रदेशों में बैठा हुआ साधु समाधि-युक्त होकर आत्म-चिन्तन में ही प्रवृत्त रहे और किसी प्रकार की कुचेष्टा से असमाहित होकर क्षुद्र जीवों की विराधना का भागी कदापि न बने ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 128 । दुइअं परीसहज्झयणं