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ही ग्राम-नगर आदि में नियमपूर्वक विचरण करता रहे और विहार में किसी से किसी प्रकार की भी सहायता की आकांक्षा न करे, किन्तु किसी भी ग्राम नगर आदि में अनासक्त होकर विहार करे। इसी से उक्त परीषह पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
यहां पर गाथा में जो 'लाढ' शब्द है, वह प्रथमान्त है और अध्याहृत मुनिपद का विशेषण है, इसलिए वृत्तिकार ने इसका यही अर्थ किया है कि–'लाढयति' यापयति आत्मानम् एषणीयाहारेणेति लाढो, देश्यत्वात् प्रशस्यः' जो प्रासुक आहार से निर्वाह करता है उसे लाढ कहते हैं। यद्यपि आम्नाय-प्रसिद्ध एक देश-विशेष का नाम भी 'लाढ' है, जिसमें कर्मभोग के लिए भगवान् महावीर विचरण करते रहे हैं, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में इसका 'प्रासुक' आहार-पानी से निर्वाह करने वाला संयमी साधु अर्थ ही अभीष्ट है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
असमाणे चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिएओ परिव्वए ॥ १६ ॥
असमानश्चरेद् भिक्षुः, नैव कुर्यात् परिग्रहम् ।
असंसक्तो गृहस्थैः, अनिकेतः परिव्रजेत् || १६ ॥ पदार्थान्वयः-असमाणे—अहंकार से रहित होकर, चरे–विचरण करे, भिक्खू साधु, नेव—नहीं, कुज्जा—करे, परिग्गहं—परिग्रह की, असंसत्तो—असंसक्त, गिहत्थेहिं—गृहस्थों से, अणिएओ—घर से रहित होकर, परिव्वए—परिभ्रमण करे। ___ मूलार्थ साधु सदा अहंकार से रहित होकर विचरे, किसी प्रकार के परिग्रह का संचय न करे। गृहस्थों में आसक्त न हो और किसी प्रकार के घर-बार को न रखता हुआ सदा देश-भ्रमण करता रहे।
टीका-इस गाथा में साधु को निस्संग होकर देश-विदेश में विचरने की आज्ञा दी गई है। किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति ममत्व न रखकर और किसी प्रकार के स्थान का बन्ध न रखकर केवल शरीर-यात्रा और धर्म-प्रचारार्थ ही साधु को भ्रमण करना चाहिए। किसी स्थान अथवा व्यक्ति या वस्तु विशेष पर ममत्व हो जाने से साधु न तो अपने संयम में ही दृढ़ रह सकता है और न ही उससे किसी प्रकार का उपकार ही हो सकता है, इसलिए संयमशील साधु के लिए उचित है कि वह किसी वस्तु या व्यक्ति में आसक्त न हो, किसी प्रकार का परिग्रह-विशेष न रखे और किसी प्रकार का स्थान भी न बनाए, किन्तु असंग होकर सदा विचरण करे ।
उक्त गाथा में जो साधु के लिए 'अणिएओ' कहा है, उसका यही तात्पर्य है कि साधु कहीं स्थान बनाकर न बैठे, अर्थात् मठधारी न बने ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 127 / दुइअं परीसहज्झयणं