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________________ इसी प्रकार वीतराग देव के संयम-मार्ग पर चलने वाली साध्वी स्त्री सदा पुरुषों के संसर्ग को त्याज्य समझे। यहां पर इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि मुमुक्षु पुरुष को उसके संयम-मार्ग से भ्रष्ट करने वाली कुत्सित काम-वासनाएं ही हैं, अतः काम-वासनाओं को प्रबुद्ध करने वाले जितने भी कारण हैं , उन सबका ही संसर्ग संयमी पुरुष के लिए त्याज्य है, अतः कामी पुरुषों का सहवास और कामोद्दीपक साहित्य आदि का वांचन आदि कार्यों को भी विवेकशील साधु कभी आचरण में न लाए। उक्त गाथा में जो ‘आत्म-गवेषक' पद दिया है उसका यही तात्पर्य है, क्योंकि पूर्णतया ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किए बिना आत्मा की गवेषणा (आत्मा के दर्शन) नहीं हो सकते। इसलिए मोक्षपथ गामी साधु पुरुष को उचित है कि वह स्त्रीजनों को कीचड़ अर्थात् दलदल के समान फंसाने वाली और मोक्ष-मार्ग में विघ्न समझकर उनके संसर्ग का सर्वथा त्याग कर दे, न कि उनमें फंसकर अपने आत्मा का हनन कर दे, अर्थात् इनके संग से कभी अपने मार्ग से भ्रष्ट होकर अपने आपका विनाश न कर बैठे। सारांश यह है कि आत्म-गवेषी साधु स्त्री-जनों के संसर्ग से सदैव दूर रहकर अपने संयम-व्रत की आराधना में ही सदा दृढ़तापूर्वक विचरण करे, यही उसकी सर्वतोभावी विजय है। (६) चर्या -परीषह यह तो अनुभव सिद्ध बात है कि उक्त परीषह के आने की सम्भावना प्रायः एक ही स्थान में अधिक निवास करने से शक्य हो सकती है, अतः अब चर्या नाम के नौवें परीषह का वर्णन किया जाता है एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे · । .. गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए ॥ १८ ॥ एक एव चरेल्लाढः, अभिभूय परीषहान् । ग्रामे वा नगरे वाऽपि, निगमे वा राजधान्याम् ॥ १८॥ पदार्थान्वयः—एग एव–अकेला ही, चरे–विचरे, लाढे—प्रासुक आहार से निर्वाह करने वाला, अभिभूय—जीत करके, परीसहे—परीषहों को, गामे—ग्राम में, वा—अथवा, नगरे–नगर में, वा—अथवा, निगमे वणिक्-स्थान में, वा—अथवा, रायहाणिए-राजधानी में, वि–अपि अर्थात् मंडपादि में। मूलार्थ—साधु अकेला ही प्रासुक आहार से निर्वाह करता हुआ ग्राम, नगर, वणिक्-स्थान और राजधानी आदि स्थानों में विचरण करे। टीका—इस गाथा में साधु को एक स्थान में बैठे न रहकर सदा विचरते रहने का आदेश दिया गया है। केवल प्रासुक आहार से निर्वाह करने वाला विवेकशील साधु रागादि से रहित होकर अकेला श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 126 | दुइअं परीसहज्झयणं .
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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