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ने ज्ञान-पूर्वक परित्याग कर दिया है उसकी साधुता सफल है।
टीका जैसे श्लेष्मा के साथ मक्षिकाओं का सम्बन्ध है, ठीक उसी प्रकार इस लोक में पुरुषों का स्त्रियों के साथ सम्बन्ध है। जैसे श्लेष्मा की कुत्सित स्निग्धता मक्षिकाओं को अपनी ओर खींच लेती है, उसी प्रकार स्त्रियों के हाव-भाव पुरुष का आकर्षण कर लेते हैं। जैसे मक्षिकाएं उस श्लेष्मा में फंस जाती हैं उसी प्रकार कामी पुरुष भी स्त्रियों के हाव-भाव, रूप एवं मायाजाल में फंसे बिना नहीं रह सकते।
जिस मुमुक्षु पुरुष ने सोच-समझकर स्त्रियों के अनर्थकारी संसर्ग का पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया है, उसी का संयम सुन्दर और निर्मल है, क्योंकि काम-वासना के सम्बन्ध से ही प्रायः सावद्य अर्थात् पापाचरणमय कार्यों में प्रवत्ति होती है, इसलिए वीतराग देव के मार्ग पर चलने वाले साधु पुरुषों के लिए स्त्री-संसर्ग सदैव त्याज्य कहा गया है। उनको तो इनका संसर्ग-श्लेष्मा की भांति सर्वथा कुत्सित और दुर्गन्ध-युक्त ही समझना चाहिए । ___ यहां पर तृतीया विभक्ति के 'येन-तेन' अर्थ में ही 'यस्य-तस्य' के रूप में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
एयमादाय मेहावी, पंकभूयाओ इथिओ । - नो ताहि विणिहम्नेज्जा, चरेज्जऽत्तगवेसए ॥ १७ ॥
एवमादाय मेधावी, पंकभूताः स्त्रियः ।
नो ताभिर्विनिहन्यात् चरेदात्मगवेषकः || १७ ॥ पदार्थान्वयः—एयं इस प्रकार, आदाय—ग्रहण करके, मेहावी-बुद्धिमान्, पंकभूयाओ— कीचड़ के समान, इथिओ-स्त्रियां हैं, ताहिं—उन स्त्रियों से, नो विणिहन्नेज्जा—हनन न होवे, चरेज्ज–संयम-मार्ग पर विचरण करे, अत्तगवेसए—आत्मा को खोजने वाला। - मूलार्थ:-बुद्धिमान् पुरुष 'ये स्त्रियां कीचड़ के समान हैं' ऐसा जानकर इन स्त्रियों के द्वारा अपने आपका हनन न करे, किन्तु आत्म-गवेषी बनकर दृढ़ता-पूर्वक अपने मार्ग में ही विचरण करे।
टीका—संयमी पुरुष के लिए स्त्रियों के संसर्ग में रहने से अनेक प्रकार के अनर्थों की संभावना रहती है। साधु पुरुषों के संयम-रत्न को चुराने में स्त्रियों से बढ़कर दूसरा कोई चतुर नहीं है। इनके मायाजाल में फंसने वाला साधु अपने संयम-व्रत से सदा के लिए हाथ धो बैठता है। जैसे कीचड़ में फंस जाने वाला पुरुष कभी अलिप्त नहीं निकल सकता, इसी प्रकार स्त्रीरूप कीचड़ के संसर्ग में आने वाले संयमशील साधु के संयम-व्रत में भी किसी प्रकार के लांछन के लगने की अवश्य ही संभावना बनी रहती है। इसलिए संयम मार्ग पर चलने वाला साधु इन बातों के अनर्थकारी परिणामों पर विचार करता हुआ स्त्री-संसर्ग से अपने आपको सदैव दूर रखने का प्रयत्न करे।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 125 । दुइअं परीसहज्झयणं