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________________ अरतिं पृष्ठतः कृत्वा, विरत आत्मरक्षितः । धर्मारामे निरारम्भः, उपशान्तो मुनिश्चरेत् ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः—अरइं–अरति को, पिट्ठओ—पीठ पीछे, किच्चा—करके, विरए-हिंसा आदि से रहित, आयरक्खिए-आत्मा की रक्षा करने वाला, धम्मारामे—धर्म में रमण करने वाला, निरारंभे—आरम्भ से रहित, उवसंते—उपशान्त, मुणी–साधु, चरे–संयम-मार्ग में विचरे । ___ मूलार्थः चिन्ता की ओर पीठ करके, हिंसादि दोषों से रहित होकर, आत्मा का रक्षक और धर्म में रमण करने वाला आरम्भ से रहित और कषायों में उपशांत होकर विवेकशील मुनि संयम-मार्ग में विचरण करे। ___टीका–चिन्ता धर्म के आराधन में अनेक प्रकार के विध्न उपस्थित करने वाली है, अतः संयममार्ग में विचरने वाले मुनि को इसे कभी अपने सम्मुख नहीं आने देना चाहिए। हिंसा आदि पांच प्रकार के सावध व्यापार भी धर्माचरण के पूर्ण घातक हैं, अतः संयमशील साधु को इनसे भी सर्वथा अलग रहना चाहिए। इन्हीं सावध व्यापारों के त्याग से साधु 'विरति' कहलाने के योग्य और आत्मा . की यथार्थ रक्षा करने में समर्थ हो सकता है। __ साधु पुरुष को पतन की ओर ले जाने वाले जितने भी दोष हैं, उन सबका मूल कारण आरम्भ समारम्भ ही है, अतः त्यागशील यति को इस आरम्भ-समारम्भ से सदा ही दूर रहना चाहिए, तभी वह धर्म-रूप वाटिका में रमण कर सकता है एवं क्रोध आदि कषायों की विद्यमानता में आत्मा को कभी शान्ति का लाभ नहीं हो सकता, इसलिए विचारशील मुनि को कषायों से मुक्त होकर आत्मा में परम शान्ति को स्थापन करने में ही दत्तावधान होना चाहिए। इस प्रकार से संयम-मार्ग में प्रस्थान करने वाला मुनि कभी भी अरति से परिव्याप्त नहीं हो सकता। (८) स्त्री-परीषहचिन्तायुक्त मनुष्य के मन में कभी-कभी काम-वासना के जागने की भी सम्भावना हो सकती है, इसलिए अब आठवां स्त्री-परीषह कहा जाता है संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगम्मि इथिओ । जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामण्णं ॥ १६ ॥ संग एष मनुष्याणां, या लोके स्त्रियः । येनैताः परिज्ञाताः, सुकृतं तस्य श्रामण्यम् || १६ ॥ पदार्थान्वयः—संगो—संग, एस—यह, मणुस्साणं—मनुष्यों का, जाओ-जो, लोगम्मि–लोक में, इथिओ-स्त्रियां हैं, जस्स-जिसने, एया इनका संग, परिन्नाया ज्ञानपूर्वक त्याग दिया है, तस्स—उसने, सुकडं—अच्छा किया, सामण्णं श्रमण-भाव को। ___ मूलार्थ लोक में पुरुषों का स्त्रियों के साथ जो संसर्ग है, उस स्त्री-संसर्ग का जिस संयमी पुरुष श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 124 | दुइअं परीसहज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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