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________________ इस गाथा का संक्षेप में इतना भाव और समझ लेना चाहिए कि यदि कभी वस्त्रादि के अभाव से शीत आदि की अधिक बाधा होने की सम्भावना में साधु इस प्रकार के दीन और दुर्बल विचारों से अपने आत्मा को पराजित न करे कि यदि मुझे शीत ने सताया तो फिर मैं किस की शरण में जाऊंगा, अर्थात् किस के अवलम्बन से मैं इस कष्ट से मुक्त हो सकूँगा। किन्तु बलवान् एवं सहिष्णु बनकर संभाव्य आगन्तुक शीत-बाधा का सहर्ष स्वागत करने के लिए ही साधु उद्यत रहे, यही उसकी 'अचेल-परीषह' पर विजय है। (७) अरति-परीषहवस्त्रादि के अभाव से शीत आदि की बाधा का उपस्थित होना अनिवार्य है और किसी प्रकार के कष्ट से अरति का उत्पन्न होना भी अवश्यंभावी है, इसलिए अब सातवें अरति नाम के परीषह का वर्णन करते हैं गामाणुगामं रीयंतं, अणगारं अकिंचणं । अरई अणुप्पवेसेज्जा, तं तितिक्खे परीसहं ॥ १४ ॥ ग्रामानुग्रामं रीयमाणं, अनगारमकिंचनम् । अरतिरनुप्रविशेत्, तं तितिक्षेत् परीषहम् || १४ ॥ पदार्थान्वयः—गामाणुगामं—ग्राम-प्रतिग्राम में, रीयंतं विचरते हुए, अकिंचणं—अकिंचन, अणगारं—साधु को, अरई–चिन्ता, अणुप्पवेसेज्जा—प्रवेश कर तो, तं—उस, परीसहं—परीषह को, तितिक्खे–सहन करे। ___ मूलार्थ ग्राम-प्रतिग्राम में विचरते हुए अकिंचन साधु के मन में यदि कोई चिन्ता उत्पन्न हो जाए तो उसे उस चिन्ता-जय परीषह को समतापूर्वक सहन करना चाहिए। . टीका—किसी ग्राम-मार्ग में जाते हुए यदि मार्ग में कोई और ही ग्राम आ जाए तो उसे अनुग्राम कहते हैं। सो ग्रामानुग्राम में विचरते हुए अकिंचन वृत्ति वाले साधु के हृदय में यदि किसी आगन्तुक कारण से किसी भी प्रकार की चिन्ता उपस्थित हो जाए तो संयमशील साधु को उचित है कि वह उस चिन्ता से व्याकुल न बने, किन्तु धैर्य और विचार-पूर्वक उस चिन्ता अर्थात् अरति को दूर करके मन को स्थिर और स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करे। जबकि विवेकशील साधु को जीवन-मरण इन दोनों में ही एक प्रकार के परिवर्तन के सिवाय और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता तो फिर चिन्ता किस बात की? अब इसी विषय में और जानने योग्य बातें कहते हैं अरई पिट्ठओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुणी चरे ॥ १५ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 123 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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