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अथवा त्रास देने से मेरी अहिंसक वृत्ति में बाधा आएगी, अतः इनकी जो इच्छा हो वह करते रहें । मुझे तो इन जीवों की प्रवृत्ति को उपेक्षा दृष्टि से देखते हुए अपने आपको उसके सहन करने के लिए ही सर्वदा प्रस्तुत रखना चाहिए, इसी में मेरी सर्वतोभावी विजय है ।
(६) अचेल - परीषह—
साधक को दंस-मशकादि के उपद्रव से बचने के लिए वस्त्र आदि की गवेषणा करनी पड़ती है, क्योंकि वस्त्रादि के ओढ़ने पर इनका उपद्रव बहुत कम हो जाता है, इसलिए अब अचेल - परीषह का वर्णन किया जा रहा है—
परिजुण्णेहिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए |
अदुवा सचेले होक्खामि, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ १२ ॥
परिजीर्णैर्वस्त्रैः,
भविष्यामीत्यचेलकः
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अथवा सचेलको भविष्यामि, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ १२ ॥
पदार्थान्वयः – परिजुण्णेहिं सर्व प्रकार से जीर्ण, वत्थेहिं – वस्त्रों से मैं, अचेल - अचेलक—–वस्त्र-रहित, होक्खामि — हो जाऊंगा, त्ति - इस प्रकार का चिन्तन भिक्षु न करे, अदुवा - अथवा, सचेले—-वस्त्र-युक्त, होक्खामि हो जाऊंगा, इइ – इस प्रकार भी, भिक्खू – साधु, न चिंतए — चिन्तन न करे ।
मूलार्थ—वस्त्रों के सर्व प्रकार से • जीर्ण हो जाने पर मैं वस्त्र - रहित हो जाऊंगा इस प्रकार का अथवा 'वस्त्रों से युक्त हो जाऊंगा' इस प्रकार भी साधु कभी चिन्तन न करे ।
टीका- - इस गाथा में साधु के लिए वस्त्रों के विषय में भी किसी प्रकार के ममत्व को रखने का निषेध किया गया है। संयमशील साधु के लिए शास्त्रकार यह आज्ञा देते हैं कि साधु अपने वस्त्रों के सर्वथा जीर्ण हो जाने पर भी यह विचार कभी न करे कि 'अब - मैं वस्त्रों से रहित हो जाऊंगा। अब मुझे और वस्त्र कहां से मिलेंगे तथा अब मैं इन जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके नए वस्त्र पहनूंगा, अर्थात् मेरे इन फटे हुए पुराने वस्त्रों को देख कर कोई-न-कोई सद्गृहस्थ मुझे नए वस्त्र दे ही देगा, इ प्रकार का चिन्तन भी न करें ।'
तात्पर्य यह है कि इस प्रकार का चिन्तन साधु के लिए हर्ष एवं शोक की उत्पत्ति का कारण बनता है और हर्ष - शोक के निमित्त से मोहनीय कर्म का विशेष बन्ध होता है जो कि किसी प्रकार से भी साधु के लिए इष्ट नहीं है, अतः संयमशील साधु को उचित है कि वह वस्त्रों के मिलने पर किसी प्रकार का हर्ष न करें और न मिलने पर किसी प्रकार के शोक में मग्न न हो, किन्तु दोनों ही दशाओं में अपने आपको समता में रखने का प्रयत्न करे ।
वस्त्रों से यद्यपि शरीर की रक्षा के द्वारा संयम के निर्वाह में भी कुछ न्यूनाधिक सहायता मिलती है, तथापि संयम का वास्तविक निर्वाह तो आत्मा के निजी समभाव के परिणामों पर ही निर्भर है, अतः श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 121 / दुइअं परीसहज्झयणं