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________________ बाण—शर आदि के तीव्र प्रहारों की कुछ भी परवाह न करता हुआ अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है और जैसे एक शूरवीर पुरुष रण में अपने शत्रुओं को पराजित कर देता है, उसी प्रकार मुनि भी दंश-मशक आदि जीवों के परीषह में विजयशील बने । अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं न संतसे न वारेज्जा, मणं पि न पओसए । उवेहे न हणे पाणे, भुंजते मंससोणियं ॥ ११ ॥ न संत्रसेत् न वारयेत्, मनोऽपि न प्रदूषयेत् । उपेक्षेत न हन्याप्राणिनः, भुञ्जानान्मांसशोणितम् ॥११॥ पदार्थान्वयः—न संतसे—दंश-मशक आदि को त्रास न दे, न वारेज्जा—न हटाए, मणं पि—मन से भी, न पओसए—द्वेष न करे, उवेहे—उदासीन भाव से रहे, पाणे—प्राणियों को, न हणे-न मारे, भुंजते-खाते हुए, मंससोणियं—मांस और रुधिर को। मूलार्थ रुधिर और मांस को खाते हुए भी मच्छर, डांस मक्खी आदि विषैले जंतुओं को साधु न हटाए, उनके द्वारा काटे जाने पर भी उनको किसी प्रकार का त्रास न दे। मन से भी उन पर किसी प्रकार का द्वेष न करे तथा उनके प्राणों का विघात न करे, किन्तु उनके इस व्यवहार को उपेक्षावृत्ति से देखे। टीका—इस गाथा में मच्छर-मक्खी आदि जन्तुओं के प्रतिकार का साधु के लिए निषेध किया गया है, अर्थात् यदि डांस-मच्छर आदि जंतु साधु के शरीर को काटें और उसे कष्ट दें तो साधु उनका किसी प्रकार से भी प्रतिकार न करे । उनको रुधिर चूसते और मांस खाते हुए भी उन्हें न तो किसी प्रकार का त्रास दे और न हटाए तथा न क्रोध में आकर उनके प्राणों का हनन करे, किन्तु उनको यथारुचि अपना काम स्वतन्त्रता-पूर्वक करने दे तथा उनके द्वारा प्राप्त होने वाले शारीरिक कष्ट को चुपचाप समता-पूर्वक सहन करने का अभिनन्दनीय उद्योग करे। , इस प्रकार का वीर-जनोचित आचरण करने से साधु के हृदय में राग-द्वेष के भावों की कमी होकर उनके स्थान पर समता के विशुद्ध भावों की धारा बहने लगेगी जिससे कि उसकी आन्तरिक कलुषता धुल जाएगी और उसके स्थान में शुद्ध सात्विक भावों का पूर्ण रूप से विकास हो सकेगा। इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि जिस समय साधु के शरीर को डांस और मच्छर आदि जन्तुओं के उपद्रव का सामना करना पड़े, उस समय वह उनका किसी प्रकार से भी प्रतिकार न करे, किन्तु उनके भयानक उपद्रव को वह उपेक्षा की दृष्टि से देखता हुआ मन में यह सोचे कि जो यह डांस-मच्छर आदि जीव मेरे शरीर को अत्यन्त असह्य कष्ट दे रहे हैं, उसके सहन करने में ही मेरा कल्याण है। यह शरीर जिसे ये खाते हैं वह तो वास्तव में मैं नहीं हूं, मैं तो आत्मा हूं, उसके भक्षण की तो इनमें सामर्थ्य ही नहीं है तथा इनको हटाने से इनके आहार में अन्तराय पड़ेगा और इनको मारने श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 120 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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