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________________ निषिद्ध है। इसलिए गर्मी के ताप से अपने आत्मा में अणुमात्र भी आकुलता को स्थान न देते हुए उस ताप को समतापूर्वक सहन करना ही साधु-चर्या की सच्ची कसौटी है । (५) दंश-मशक - परीषह ग्रीष्म 'ऋतु के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, यह एक प्राकृतिक नियम है और वर्षा ऋतु में डांस मच्छरों आदि की अधिकता प्रायः हो ही जाती है, अतः अब दंश-मशक नाम के परीषह का वर्णन करते हैं । पुट्ठो य दंसमसएहिं नागो संगामसीसे वा, सूरो स्पृष्टश्च दंशमशकैः सम एव महामुनिः । समरेव महामुनी । अभिहणे परं ॥ १० ॥ नागः संग्रामशीर्षे इव, शूरोऽभिहन्यात् परम् ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः – पुट्ठो – स्पर्शित हुआ, य - पाद - पूरणार्थ में, दंसमसएहिं – डांस —मच्छरों से, समरेव - समभाव वाला, महामुणी - महामुनि, नागो - हाथी, संगामसीसे— संग्राम के मस्तक में, वा-- जैसे, सूरो — शूरवीर, परं— अन्य को, अभिहणे – जीतता है । मूलार्थ-दंश-मशक आदि जंतुओं का स्पर्श होने पर भी महामुनि समभाव में रहे और जैसे हस्ती संग्राम में आगे होकर शत्रुओं को जीतता है उसी प्रकार साधु भी परीषहों पर विजय प्राप्त करे । टीका-दंश-मशक आदि जीवों के द्वारा सताए जाने पर भी साधु अपने समता - परिणाम में ही . स्थित रहे, जिस प्रकार संग्राम में आगे होकर हस्ती अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है, इसी प्रकार संयमशील मुनि भी परीषह - संग्राम में अपूर्व सहनशीलता दिखाता हुआ अपनी सर्वतोभावी विजय का परिचय दे । चातुर्मास — वर्षाऋतु में काटने वाले दंश-मशक आदि जंतुओं का बहुत उपद्रव होता है, और उनसे बचने के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए जाते हैं, परंतु साधु के लिए केवल एक ही उपाय है, वह यह कि साधु समभाव से इन जीवों द्वारा दिए गए कष्टों को दृढ़ता पूर्वक सहन करे, इसी में उसकी शूरवीरता है। यहां पर गाथा में जो 'समरेव' पद दिया गया है, इसमें रेफ को प्राकृत की शैली के अनुसार अलाक्षणिक समझना चाहिए। वास्तव में शब्द तो 'सम एव' ही है, तथा 'समरेव' शब्द में भी 'समर इव' इस प्रकार का विग्रह करने से सन्धि द्वारा काम चल सकता है, तब इसका अर्थ हुआ कि 'समर इव संग्राम की तरह । फिर 'वा' शब्द जो कि इस गाथा में आया है, वह भी 'इव' के अर्थ का ही बोधक है। ऐसा ही वृत्तिकार लिखते हैं— 'वा शब्दस्येवार्थास्यात्र सम्बन्धात्' । तथा 'इव' शब्द का नाग और शूर दोनों के साथ सम्बन्ध करने से अन्य अर्थ की कल्पना भी की जा सकती है । तथाहि —– जैसे हस्ती संग्रामभूमि में श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 119 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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