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________________ इसके अतिरिक्त उक्त प्रकार के आचरण का अनुमोदन करना भी संयमवान् साधु के लिए त्याज्य है। क्षुधा की-शान्ति के निमित्त खाद्य वस्तुओं को मूल्य देकर लाना, अथवा दूसरों से मंगवाना तथा ऐसा आचरण करने वालों का अनुमोदन करना भी वीतराग-मार्ग में प्रवृत्ति रखने वाले साधु वर्ग के लिए निन्द्य है। इससे सिद्ध हुआ कि जिस विधि से जिन पदार्थों के ग्रहण करने की साधु के लिए वीतराग देव के धर्म में आज्ञा नहीं है, उन पदार्थों से साधु अपनी तीव्र क्षुधा को शान्त करने के बदले उसको पूर्ण समता से सहन करता हुआ अपनी साधु-चर्या पर अटल रूप से खड़ा रहने का स्तुत्य प्रयत्न करे । यही उसकी क्षुधा-परीषह पर सर्वतोभावेन विजय है, जिसे कि पिपासा आदि अन्य परीषहों के लिए एक प्रकार की चुनौती–चेतावनी समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस गाथा के भावार्थ पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से यह बात भी भली भान्ति समझ में आ जाती है कि उस समय के मुनि लोग प्रायः वनों में ही निवास किया करते थे। वनों में फल आदि की सुलभता प्रायः होती ही है, किन्तु मुनि के लिए उनके तोड़ने या तुड़वाने आदि का निषेध किया गया है। अन्यथा वह फल आदि का तोड़ना व तुड़वाना उपपन्न ही नहीं हो सकता। इसीलिए मुनिजनों के निवास स्थान को भी स्पष्ट नहीं तो अर्द्ध स्पष्ट शब्दों में तो अवश्य प्रतिपादन कर दिया गया है तथा साधु के नवकोटि प्रत्याख्यान—मन, वाणी और शरीर से, करना, कराना और अनुमोदन करना रूप की झलक भी उक्त. गाथा के भावार्थ में किसी-न-किसी रूप में दृष्टिगोचर हो रही है। - अब इसी विषय में जानने योग्य कुछ अन्य बातें बताते हैं काली-पव्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए । मायन्ने असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे ॥ ३ ॥ काली पर्वाङ्गसंकाशः, कृशो धमनि-संततः । मात्रज्ञोऽशनपानयोः, अदीनमनाश्चरेत् ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः- कालीपव्वंगसंकासे काक-पर्वांग के समान, किसे—कृश, धमणिसंतए—धमनी जाल है, मायन्ने प्रमाण के जानने वाला, असण-पाणस्स–अन्न-जल के, अदीणमणसो—अदीन मन होकर, चरे–संयम-मार्ग में विचरे । मूलार्थ—काक-जंघा के समान शरीर यदि कृश भी हो गया हो तो भी अन्न और पान के प्रमाण का जानने वाला साधु अदीन मन से संयम-मार्ग में विचरे। टीका–तपोऽनुष्ठान से जिसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, अर्थात् काक-जंघा—एक प्रकार की वनस्पति-बूटी है, जिसके पर्व तो स्थूल होते हैं और मध्य का भाग बहुत सूक्ष्म होता है—उसी के समान जिसके शरीर के अंगोपांग हो गए हों, शरीर में केवल नसों का समूह ही दिखाई देता हो ऐसे , श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 113 | दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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