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से उक्त गाथा में परीषहों के स्वरूप वर्णन के प्रस्ताव में सर्वप्रथम उसके नाम और विषय का उल्लेख किया गया है।
(१) क्षुधा-परीषहदिगिंछापरिगए देहे, तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिंदे न छिंदावए, न पए न पयावए ॥ २ ॥
क्षुधापरिगते देहे, तपस्वी भिक्षुः स्थामवान् । .
न छिंद्यात् न छेदयेत् न पचेत् न पाचयेत् || २ || पदार्थान्वयः दिगिछापरिगए क्षुधा से व्याप्त, देहे—शरीर में, तवस्सी–तपस्वी, भिक्खु– साधु, थामवं—बलवान् हो, न छिंदे—फलादि को न छेदे, न छिंदावए और दूसरों से न छिदवाये, न पए स्वयं न पकावे, न पयावए-न औरों से पकवाए। ___मूलार्थ शरीर में क्षुधा के अत्यन्त व्याप्त होने पर भी तपस्वी साधु अपने संयम में बलवान् रहे, अर्थात् क्षुधा को सहन करे, किन्तु क्षुधा की निवृत्ति के लिए फलादि को स्वयं न छेदे और न दूसरों से उनका छेदन कराए तथा उनको न स्वयं पकाए और न ही दूसरों से पकवाए।
टीका—अन्य कष्टों की अपेक्षा क्षुधा का कष्ट अधिक बलवान् है। इसको समतापूर्वक सहन करना कोई मामूली सी बात नहीं है। शास्त्रकारों ने भी साधु के उक्त बाईस परीषहों में क्षुधा-परीषह को प्रथम स्थान इसी हेतु से दिया है कि यह अन्य परीषहों की अपेक्षा दुर्जेय है। इसलिए संयमशील साधु को क्षुधा को समता-पूर्वक बिना किसी प्रकार का आर्त्तध्यान किए हुए सहन कर लेना मानो पिपासा आदि अन्य परीषहों पर बड़ी सुगमता से विजय प्राप्त कर लेने की एक प्रकार की बलवती आरम्भिक तैयारी करना है। अतः क्षुधा के अधिक-से-अधिक परिणाम में व्याप्त होने पर भी दृढ़ संयमी साधु उसको समता-पूर्वक सहन करने की ही अपने आत्मा में विशिष्ट शक्ति सम्पादन करे और क्षुधा के व्याप्त होने पर उसकी निवृत्ति के लिए स्वतः ही बिना किसी प्रकार का आरम्भ किए कहीं से एषणीय प्रासुक आहार-निर्दोष शुद्ध भिक्षा यदि मिल जाए तो उसका तो वह उपयोग कर सकता है, परन्तु जंगलों में उत्पन्न हुए वृक्षों के कच्चे अथवा पक्के सचित्त फलों से तथा इसी प्रकार के आधाकर्मी दूषित आहार से शरीर-व्याप्त क्षुधा की उस तीव्र अग्निज्वाला को शान्त करने के लिए पापमय प्रयत्न कदापि न करे । ___ इसका भावार्थ यह है कि साधु को सचित वस्तु के स्पर्श तक का जब शास्त्रों में निषेध किया गया है, तब उनके भक्षण का तो संयमशील को मन में विचार तक भी नहीं लाना चाहिए, इसी में उसके निर्दोष संयम की दृढ़ता और परिपक्वता है। इसीलिए उक्त गाथा में वृक्षों के कच्चे अथवा पक्के फलों को स्वयं तोड़ने व दूसरों से तुड़वाने तथा उनके छेदन करने और दूसरों से छेदन करवाने एवं टूटे हुए उन सचित्त फलों अथवा अन्य खाद्य पदार्थों को स्वयं पकाने या दूसरों से पकवाने का संयमशील साधु के लिए स्पष्ट निषेध किया गया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 112 | दुइअं परीसहज्झयणं