SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्थि-पंजरमय नितान्त कृश शरीर वाला साधु भी अदीन होकर बड़ी दृढ़ता से संयम-मार्ग में विचरण करे। ___इसका भावार्थ यह है कि यदि साधु को उसके ग्रहण करने योग्य शुद्ध आहार भिक्षा में न मिले तो वह उसके लिए किसी प्रकार की दीनता-सूचक लालसा को प्रकट न करे, किन्तु क्षुधा के उस असहनीय कष्ट को भी समतापूर्वक सहन कर ले और यदि उसको प्रासुक एषणीय आहार की योगवाही कहीं से मिल भी जाए तो उसकी सरसता पर वह अपने आत्मा को मूर्च्छित न करे, तथा प्रमाण से अधिक भोजन करने की भी इच्छा न करे। तात्पर्य यह है कि क्षुधा की तीव्रता में भी साधु अपनी वृत्ति के विरुद्ध आहार की लालसा कदापि न करे। यहां पर इतना और भी अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार आगम-विहित संयम-मार्ग में यथावत् प्रवृत्ति रखने वाला साधु शरीर के अन्दर क्षुधा की तीव्रतर अग्नि-ज्वाला के धधकने पर भी . साधुजन- विगर्हित सचित आहार-भोजन से उसकी निवृत्ति की कभी आकांक्षा नहीं करता, उसी प्रकार सद्गृहस्थों को भी चाहिए कि वे भी मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों को कभी अंगीकार न करें। धर्मात्मा पुरुषों का इसी में गौरव है कि वे बड़ी-से-बड़ी आपत्ति के समय में भी अपने कर्त्तव्य से कभी भ्रष्ट न हों, क्योंकि धर्म ही एक ऐसा तत्व है जो कि परलोक में भी साथ देने वाला है, अन्य सब कुछ तो यहीं पर रह जाने वाली सामग्री है। साधु पुरुषों की भान्ति गृहस्थों को भी अपने गृहीत नियमों के अनुष्ठान में पूर्णतया सावधान रहना चाहिए। अपि च देश विरति और सर्वविरति (गृहस्थ और साधु) के नियमों को लेकर परीषहों के सहन में यद्यपि कुछ न्यूनाधिकता आ जाती है, परन्तु यह सब कुछ विशेष करके भावना की तारतम्यता पर अवलम्बित है। उदाहरण के रूप में अम्बड़ संन्यासी के सात सौ शिष्यों ने सचित जल का त्याग न होने पर भी, अदत्तादान—अदत्त बिना दिए हुए आदान-ग्रहण करना अर्थात् चोरी का त्याग होने के कारण अनशन द्वारा अपने प्राण तो छोड़ दिए, परन्तु अदत्त होने से उस जल का ग्रहण नहीं किया तथा धन्ना अनगार ने अभिग्रह-पूर्वक आहार-परीषह का सहन अन्त तक किया, इसी प्रकार अन्य परीषहों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। (२) तृषा-परीषह तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्जसंजए । सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे || ४ || ततः स्पृष्टः पिपासया, जुगुप्सी लज्जा-संयतः । शीतोदकं न सेवेत्, विकृतस्यैषणां चरेत् || ४ || पदार्थान्वयः-तओ—उसके पीछे, पुट्ठो—स्पर्शित हुआ, पिवासाए-पिपासा से, दोगुंछी–घृणा करने वाला, लज्ज-संजए—लज्जा वाला साधु, सीओदगं—शीतोदक का, न सेविज्जा—सेवन न करे, वियडस्स—विकृत अर्थात् अचित् जल की, एसणं तलाश के लिए, चरे–विचरे। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 114 | दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy