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शिष्य का परीषहों के विषय में प्रश्नकयरे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया? जे भिक्खू सुच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय, भिक्खायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा ॥ २ ॥
कतरे खलु ते द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः? यान् भिक्षु श्रुत्वा, ज्ञात्वा, जित्वा अभिभूय भिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्पृष्टो न विनिहन्येत् ॥ २॥
पदार्थान्वयः कयरे-कौन से, खल-निश्चय से, ते—वे, बावीसं—बाईस, परीसहा-परीषह हैं जो, समणेणं श्रमण, भगवया भगवान्, महावीरेणं महावीर, कासवेणं-कश्यपगोत्रीय ने, पवेइया—बताए हैं, जे–जिनको, सुच्चा--सुन करके, नच्चा—जान करके, जिच्चा-जीत करके अभ्यास करके, अभिभूय-उनकी शक्ति को जीत करके, भिक्खायरियाए–भिक्षाचरी में, परिव्वयंतो घूमते हुए, पुट्ठो–स्पर्शित होने पर, नो विनिहन्नेज्जा—संयम-मार्ग से न गिरे। .
मूलार्थ वे कौन से बाईस परीषह हैं जो कि कश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किए हैं? जिनको साधु सुन करके, जान करके, अभ्यास करके और उनकी शक्ति को जीत करके सहन करे, यदि भिक्षाचरी में घूमते हुए को इनका स्पर्श हो जाए तो वह अपने संयम से न गिरे।
टीका—इस वाक्यसमुदाय की व्याख्या पहले ही कर दी गई है। अब दोबारा व्याख्या करना सर्वथा अनावश्यक है। प्राकृत भाषा की अथवा सूत्र-ग्रन्थों की यह, शैली है कि प्रश्न में उन सब वाक्यों को फिर से दोहराया जाए, इसलिए प्रश्न में वे सब पंद फिर से दोहराए गए हैं। अस्तु, यहां पर श्रमण शब्द का अर्थ तपस्वी है और साथ में श्रमण शब्द के उल्लेख से यह भी ध्वनित किया गया है कि वास्तव में ज्ञान-प्राप्ति श्रवण से ही हो सकती है तथा ज्ञान की परिपक्वता के लिए सतत अभ्यास की जरूरत है। इसलिए अभ्यास के द्वारा परीषहों पर विजय प्राप्त करके अपने संयम को दृढ़ बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
शिष्य के प्रश्न का उत्तरइमे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया । जे भिक्खू सुच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा ॥ ३॥ ___ इमे खलु ते द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः । यान् भिक्षुः श्रुत्वा, ज्ञात्वा, जित्वा, अभिभूय, भिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्पृष्टो नो विनिहन्येत् ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः—इमे—ये, खलु-निश्चय, ते—वे, बावीसं—बाईस, परीसहा परीषह, समणेणं श्रमण, भगवया—भगवान्, महावीरेणं—महावीर ने, कासवेणं-कश्यपगोत्रीय ने,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 108 । दुइअं परीसहज्झयणं