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________________ पवेइया–प्रतिपादन किए हैं, जे–जिनको, भिक्खू–साधु, सुच्चा श्रवण करके, नच्चा-जान करके, जिच्चा–परिचित करके, अभिभूय—उनकी शक्ति को जीत करके, भिक्खायरियाए– भिक्षाचरी में, परिव्ययंतो-घूमते हुए, पुट्ठो—स्पर्शित हुआ, नो विनिहन्नेज्जा—संयम-मार्ग से पतित न हो। ____ मूलार्थ—अब आगे कहे जाने वाले २२ परीषह ये हैं, जिनका प्रतिपादन कश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने किया है, जिनको सुनकर, जानकर, परिचित होकर और उनकी सामर्थ्य को नष्ट करके संयम में स्थित होता हुआ साधु भिक्षाचरी में घूमते हुए किसी परीषह के स्पर्श से संयम-मार्ग का परित्याग न करे। टीका—जिस प्रकार प्रश्न करते समय सम्पूर्ण पाठ का उच्चारण किया गया था उसी प्रकार उत्तर की इस गाथा में भी उसका सम्पूर्ण पाठ देना कोई पुनरुक्ति नहीं है, किन्तु प्राकृत प्रवचन की यही शैली है कि उसमें पठित पाठ का प्रश्न और उत्तर में अनेक बार उच्चारण किया जाता है, जिससे कि स्वाध्याय में तो पुण्य की अभिवृद्धि हो और अर्थों के परिज्ञान में सुगमता रहे । इसके अतिरिक्त 'कासवेणं'-काश्यप-लिखने का प्रयोजन भगवान् महावीर स्वामी को क्षत्रिय कुल के कश्यप गोत्र में उत्पन्न होना प्रमाणित करना है। कश्यप यह क्षत्रियों का प्रधान गोत्र माना गया है। - यहां सूत्रगत 'पवेइयाँ'-प्रवेदिताः—का भावार्थ यह है कि भगवान् ने परीषहों का प्रतिपादन अपने स्वतन्त्र ज्ञान द्वारा स्वयं किया है, किसी अन्य से सुनकर नहीं किया, क्योंकि वे केवलज्ञानी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे, उनका ज्ञान किसी अन्य ज्ञान के अधीन नहीं था। वे स्वतन्त्र ज्ञान के अधिपति थे, उनके स्वतन्त्र ज्ञान में भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन विश्व के सारे पदार्थ करतलामलकवत् भासमान होते थे। केवलज्ञान की यह महिमा है कि उससे कोई भी भाव तिरोहित नहीं रहता। केवलज्ञान ही एक स्वतंत्र ज्ञान है, उसके अतिरिक्त मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्यव ये चारों ज्ञान परतन्त्र अथवा छद्मस्थिक कहे जाते हैं। - भगवान् ने मुनि को सहन करने योग्य बाईस परीषह बताए हैं। उनके नामों का अनुक्रम से उल्लेख इस प्रकार है तं जहा–१ दिगिंछापरीसहे, २ पिवासापरीसहे, ३ सीयपरीसहे, ४ उसिणपरीसहे, ५ दंस-मसयपरीसहे, ६ अचेलपरीसहे ७ अरइपरीसहे, ८ इत्थीपरीसहे, ६ चरियापरीसहे, १० निसीहियापरीसहे, ११ सिज्जापरीसहे, १२ अक्कोसपरीसहे, १३ वहपरीसहे, १४ जायणापरीसहे, १५ अलाभपरीसहे १६ रोगपरीसहे, १७ तणफासपरीसहे, १८ जल्लपरीसहे, १६ सक्कारपुरक्कार परीसहे, २० पन्नापरीसहे, २१ अन्नाण-परीसहे, २२ दंसणपरीसहे ॥ ४ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 109 | दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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