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________________ परीसहा— परीषह—–— कष्ट, समणेणं श्रमण, भगवया— भगवान्, महावीरेणं महावीर, कासवेणं—कश्यपगोन्नीय ने, पवेइया — बताये हैं, जे – जिनको, भिक्खू साधु, सुच्चा - सुन करके, नच्चा—जान करके, जिच्चा — परिचित हो करके, अभिभूय — उन्हें जीत करके, भिक्खायरिया — भिक्षाचरी में, परिव्वयंतो — परिव्रजन करता हुआ, पुट्ठो – स्पर्शित हुआ, नो विनिहन्नेज्जासंयम मार्ग से भ्रष्ट न हो । मूलार्थ — श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है कि उस जगत्प्रसिद्ध भगवान् ने इस प्रकार से प्रतिपादन किया है कि इस जिनशासन में २२ परीषह हैं जो कश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने बताये हैं, जिनको साधु सुन करके, जान करके, उनसे परिचित हो करके, उनके सामर्थ्य को जीत करके भिक्षाचरी में घूमते हुए उनका स्पर्श होने पर भी संयम मार्ग से भ्रष्ट न हो । टीका–श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से परीषहों का वर्णन करते हुए, वर्ण्य विषय को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए अपनी श्रुति परम्परा का भी उल्लेख करते हैं । यथा – आयुष्मन् !. मैंने सुना है कि उन जगत्प्रसिद्ध सर्वैश्वर्य-सम्पन्न भगवान् ने इस रीति ये प्रतिपादन किया है। शंका- किस स्थान पर प्रतिपादन किया है ? समाधान -- इस प्रवचन में प्रतिपादन किया है कि कश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने २२ परीषह बताए हैं। शंका—भगवान् ने स्वयं बताए हैं या किसी से सुनकर ? समाधान- किसी से सुनकर नहीं, किन्तु अपने केवल - ज्ञान में देखकर इनका प्रतिपादन किया है । साधु मुनिराज इन परीषहों को अपने गुरुजनों के मुख से सुन करके यथावत् जान करके, पुनः - पुनः अभ्यास के द्वारा इनसे परिचित होकर और इनके सामर्थ्य को नष्ट करके अपने चारित्र में— स्वीकृत नियमों में दृढ़ रहने का प्रयत्न करे, किन्तु भिक्षाचरी में घूमते हुए — भिक्षा के निमित्त परिभ्रमण. करते हुए साधु को दैवयोग से यदि कोई परीषह — कष्ट आ जाए तो वह दृढ़ता और समा से उसका सामना करें और उस पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करे, वह परीषहों से डर कर अपने संयम मार्ग से भ्रष्ट होने की गर्हित चेष्टा कदापि न करे। यहां पर परीषहों के आगमन में जो भिक्षाचरी का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य केवल इतना है कि भिक्षार्थ घूमते समय प्रायः किसी न किसी परीषह का उदय हो ही जाता है, यथा- 1 - भिक्खायरियाए बावीसं परीसहा उईरिज्जंति' अर्थात् भिक्षाचरी में २२ परीषह उदय में आ जाते हैं, इसलिए परीषह के आ जाने पर भी विवेकी पुरुष अपने चारित्र -पंथ से कभी विचलित न होए । मूल गाथा में आये हुए 'आउसं – आयुष्मन् ' शब्द का 'देहली - दीपन्याय' से भगवान् और शिष्य दोनों के साथ सम्बन्ध किया जा सकता है। एवं 'परीषहाः ' शब्द अध्याहृत 'सन्ति' क्रिया का कर्त्ता है और 'खलु' शब्द को वृत्तिकार अलंकारार्थक मानते हैं । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 107 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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