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________________ अह दुइ परीसहन्झयणं | अथ द्वितीय परीषहाध्ययनम् अब परीषह नाम के दूसरे अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। इसके आरम्भ की उपपत्ति इस प्रकार है—पहले अध्ययन में विनय-धर्म का स्वरूप विस्तारपूर्वक निरूपण कर दिया गया है। अब इसमें शंका होती है कि क्या विनय का आचरण स्वस्थ दशा में ही करना उचित है, अथवा परीषह की अवस्था में भी? इसका उत्तर यह है कि विनय-धर्म का सेवन दोनों ही अवस्थाओं में आवश्यक है। जब ऐसा है तब तो परीषह का स्वरूप और उनकी संख्या का ज्ञान होना भी अनिवार्य है। इसलिए परीषह अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। परीषह—इस शब्द का सामान्य अर्थ चारों ओर से आने वाले कष्टों को समता-पूर्वक सहन करना है। संक्षेप में इन परीषहों की संख्या बाईस है। इन्हीं के .स्वरूप का विस्तृत वर्णन इस दूसरे अध्ययन में किया गया है जिसकी प्रारम्भिक गाथा यह है- ' परीषहों का सामान्य परिचयसुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया। जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय, भिक्खायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा ॥१॥ श्रुतं मया आयुष्मन्! तेन भगवता एवमाख्यातम्इह खलु द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः। .. यान् भिक्षुः श्रुत्वा, ज्ञात्वा, जित्वाऽभिभूय भिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्पृष्टो नो विनिहन्येत् ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं—आउसं—हे आयुष्मन्! सुयं मे—मैंने सुना है, तेणं—उस जगप्रसिद्ध, भगवया—भगवान् ने, एवं—इस प्रकार, अक्खायं—प्रतिपादन किया है, इह—इस जिनशासन में, खलु–निश्चय से, बावीसं—बाईस, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 106 । दुइअं परीसहज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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