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________________ होना यह उसका महत्वपूर्ण ऐहिक फल है और शरीर त्याग करने के पश्चात् देव-गति तथा अजर-अमर पद की प्राप्ति उसका - पारलौकिक चमत्कार है । इसके अतिरिक्त यहां पर एक साधारण सी यह शंका रह जाती है कि विनय-धर्म का आराधक जब कि देवों द्वारा पूजित होता है, तब फिर साथ में उसको मनुष्यों के द्वारा भी पूजित बताना कुछ युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि देवों की अपेक्षा मनुष्य हीन कोटि में माने जाते हैं। अत एव उनकी अपेक्षा ये अपूज्य हैं। फिर इनको एक ही समान कोटि में रखना किस प्रकार युक्ति-युक्त माना जाए? इस शंका का समाधान यह है कि देव, गन्धर्वादि के द्वारा विनीत पुरुष का सम्मानित होना तो केवल आगम-सिद्ध अथवा केवली दृष्ट ही है, परन्तु चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुषों के द्वारा होने वाले पूजा - सत्कार को देखने का सौभाग्य तो हम जैसे साधारण व्यक्तियों को कदाचित् प्राप्त हो सकता है, इसलिए उक्त गाथा में जो 'मनुष्य' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह बिल्कुल अर्थसंगत है । इसके अतिरिक्त एक सन्देह और बाकी रह जाता है, वह यह कि किसी घाती कर्म के कुछ शेष रह जाने पर विनयोपासक सिद्धगति को प्राप्त न करके उच्च देव -गति को ही प्राप्त हुआ अर्थात् देव बन गया तो फिर वह देव स्वल्प-कर्म व स्वल्परति वाला होने के साथ महासमृद्धि वाला भी हो यह कैसे संगत हो सकता है? परन्तु यह सन्देह सर्वथा अज्ञानमूलक है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि घाती कर्मों की न्यूनता के साथ समृद्धि की भी न्यूनता हो । लवसप्तम और कल्पातीत देवों में समृद्धि का उत्कर्ष और घाती कर्मों की स्वल्पता ये दोनों बातें मौजूद होती हैं। इन देवों का मोहनीय कर्म उदय नहीं होता, किन्तु उपशम होता है। इसलिए ये उपशान्त मोह वाले कहलाते हैं, परन्तु इसके साथ ही ये • महासमृद्धि वाले भी हैं । अतः उक्त प्रकार का सन्देह व्यर्थ है । इसके अतिरिक्त सिद्ध पद के साथ जो 'शाश्वत' विशेषण दिया गया है, वह सिद्धगति - मोक्षगति को नित्य प्रतिपादन करने के लिए दिया गया है । तात्पर्य यह है कि मुक्तात्मा की पुनरावृत्ति नहीं होती। आज कल के बहुत से स्वल्पबुद्धि वाले पुरुष मोक्ष से नियत समय के बाद आत्मा का वापस संसार में आना भी मानते हैं, परन्तु उनका यह कथन कितना उपयुक्त है तथा उनकी इस भ्रान्त कल्पना में कितना सार है, इसका विस्तृत निरूपण अन्यत्र किया गया है। 'त्ति बेमि' (इस प्रकार मैं कहता हूं) – यहां पर 'इति' शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है और ‘ब्रवीमि' का अर्थ है कि मैं गणधरादि के उपदेश सुनकर ऐसा कहता हूं, अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने जम्बूस्वामी आदि शिष्यों से कहते हैं कि मैंने जैसे तीर्थंकर भगवान महावीर से विनय धर्म का स्वरूप सुना है, उसी प्रकार मैं तुमको कहता हूं। इसमें मैंने अपनी निजी कल्पना से कुछ नहीं कहा है । विनयश्रुत अध्ययन संपूर्ण श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 105 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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