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________________ तपोऽनुष्ठान की प्राप्ति एवं तपोऽनुष्ठान से कर्म-सम्पदा में स्थिति होती है। इस प्रकार कर्म और ज्ञान की निर्मलता से आत्मा में अद्वितीय तेज की प्राप्ति होती है जिसका अन्तिम परिणाम मोक्ष है। इसके अतिरिक्त गाथा में आए हुए 'कर्मसम्पदा' और 'महाद्युति' इन दोनों शब्दों के पीछे 'भवति' क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए। विनय के प्रत्यक्ष फल स देव-गंधव्व-मणुस्सपूइए, चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्डिए || ४८ ॥ ... त्ति बेमि इति विणयसुयं नाम पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ १ ॥ . . स देव गन्धर्व मनुष्यपूजितः, त्यक्त्वा देहं मलपंकपूर्वकम् ।. . सिद्धो वा भवति शाश्वतः, देवो वाल्परजो महर्द्धिकः ॥ ४८ ॥ इति ब्रवीमि | इति विनयश्रुतं नाम प्रथममध्ययनं संपूर्णम् ॥ १ ॥ ___ पदार्थान्वयः—स—वह विनयवान् शिष्य, देवगंधव्वमणुस्सपूइए—देव, गन्धर्व और मनुष्यों द्वारा पूजित, चइत्तु त्याग करके, देहं—शरीर को, मलपंकपुव्वयं मलपंक-युक्त को, वा—अथवा, सासए—शाश्वत, सिद्धे–सिद्ध, हवइ होता है, वा–अथघा, अप्परए—अल्प कर्म-रज वाला, महिड्डिए—महाऋद्धि वाला, देव-देव होता है, त्ति—इस प्रकार, बेमि मैं कहता हूं। मूलार्थ वह विनयशील शिष्य देव, गन्धर्व और मनुष्यादि से पूजित होता हुआ मलपंक-युक्त-शुक्र-शोणित-युक्त शरीर को त्यागकर या तो शाश्वत सिद्ध हो जाता है अथवा अल्प-कर्म-रज वाला और महासमृद्धि वाला देव हो जाता है। टीका–विनय-धर्म की यह प्रत्यक्ष महिमा है कि उसके आराधक को साधारण मनुष्य की तो क्या कहें, वैमानिक, ज्योतिषी आदि देव, व्यन्तर और भवनपति आदि देवता गन्धर्व तथा चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुष भी पूजते तथा सम्मानित करते हैं। विनय-धर्म की आराधना के प्रभाव से वह मल-मूत्र और पूय-रुधिर आदि से युक्त इस दृश्यमान शरीर का परित्याग करके सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करता हुआ शाश्वत-सदा रहने वाले सिद्धपद—मोक्षपद को प्राप्त करता है और यदि उसके कुछ कर्म शेष रह जाएं तो वह अपने में स्वल्पतर मोहनीयकर्म को रखता हुआ लवसप्तम आदि महा समृद्धियों वाला देव बनता है। ___ यहां पर विनय-धर्म की फलश्रुति का वर्णन करते हुए उसके ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विशिष्ट फल का प्रतिपादन किया गया है। देव, गन्धर्व और उच्चकोटि के मनुष्यों द्वारा सम्मानित श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 104 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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