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________________ टीका—इस गाथा में विनय-धर्म की फलश्रुति का उल्लेख किया गया है। विनय-धर्म का पहला गुण तो यह है कि उसके अनुष्ठान से नम्रता की प्राप्ति होती है, क्योंकि विनीत पुरुष का सबसे पहला आचार नम्रता है। अविनीत के पास तो विनम्रता फटकने भी नहीं पाती। विनय धर्म के आचरण का दूसरा फल कीर्ति है। विनयधर्म का सेवन करने वाले की कीर्ति लोक में इस प्रकार फैलती है कि एक दिन समस्त संसार में उसका आधिपत्य हो जाता है। विनयधर्म का इससे भी अधिक यह प्रभाव है कि उसका अनुष्ठान करने वाला मनुष्य आचरणीय समस्त कार्यों का आश्रयदाता बन जाता है। जिस प्रकार वृक्ष आदि समस्त सजीव प्राणियों को आश्रय देने वाली पृथ्वी है, उसी प्रकार विनयाचार-निष्ठ पुरुष भी अपने आचार्यों तथा आचरणीय कार्यों की सफलता में एक अपूर्व सहारा है। ___ विनय-धर्म समस्त धर्मों की भूल भित्ति है। विनयाचार समस्त आचारों का मूल स्रोत है। इसके धारण से, इसके आचरण से आत्मा में जिस ज्ञान-ज्योति का उदय होता है और शान्ति के प्रशान्त महासागर में जिस प्रकार की डुबकी लगती है तथा अन्तरात्मा में अप्रमत्तता की जो मस्ती संचरित होती है उसका यथार्थ तो क्या, साधारण वर्णन भी इस मूक लेखनी की सामर्थ्य से सर्वथा बाहर है, इसलिए विनय-धर्म की महिमा अपार है। . . इस गाथा में विनय-धर्म के सम्बन्ध में उल्लेखनीय मुख्य तीन बातें कही गई हैं—(१) विनय-धर्म का अधिकारी (२) विनय-धर्म का फल (३) और विनय-धर्म का प्रभाव। इसका अधिकारी तो बुद्धिमान् पुरुष है, फल विनम्रता और दिगन्तव्यापिनी विश्व-विश्रुत कीर्ति की प्राप्ति है तथा आचरणीय समस्त कार्यों को आश्रय देना अथवा आत्मा में समस्त कार्यों के सम्पादन की शक्ति का प्रादुर्भाव होना इसका प्रभाव है। इस सारे वक्तव्य का सारांश यह है कि विनयधर्म एक ऐसा धर्म है जिससे मोक्ष-मन्दिर के कण्टकाकीर्ण विकटमार्ग को निष्कण्टक और सरलतर बनाने में अधिक-से-अधिक सहायता मिल सकती है, अतः मुमुक्षु पुरुष के लिए इसका आचरण करना कितना आवश्यक है इसके कहने की अब कोई आवश्यकता शेष नहीं रहती। -- गुरुजनों की प्रसन्नता प्राप्त करने वाले विनीत शिष्य के सम्बन्ध में अब अन्य ज्ञातव्य विषय का उल्लेख किया जाता है पूज्जा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुव्वसंथुया । पसन्ना लाभइस्संति, विउलं अट्ठियं सुयं ॥ ४६ ॥ पूज्या यस्य प्रसीदन्ति, संबुद्धाः पूर्वसंस्तुताः ।. प्रसन्ना लाभयिष्यन्ति, विपुलमार्थिकं श्रुतम् ॥ ४६॥ पदार्थान्वयः-पुज्जा—पूज्य आचार्य, जस्स-जिस पर, पसीयंति—प्रसन्न होते हैं, संबुद्धाजो तत्ववेत्ता हैं, पुव्वसंधुया—पढ़ने से पूर्व जिनकी स्तुति की गई है, पसन्ना—प्रसन्न होकर, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 101 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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