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अब विनय-धर्म में निपुणता प्राप्त किए हुए शिष्य के लक्षण कहते हैंवित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोइए । जहोवइट्ठ सुकयं, किच्चाई कुव्वई सया ॥ ४४ ॥
वित्तोऽनोदितो नित्यं, क्षिप्रं भवति सुनोदितः । यथोपदिष्टं सुकृतं, कृत्यानि कुरुते सदा || ४४ ||
पदार्थान्वयः–वित्ते—विनीत, अचोइए – बिना प्रेरणा किए, निच्चं – सदा, खिप्पं— शीघ्र, हवइ — होता है, सुचोइए – सुप्रेरित, जहा —– जैसे, उवइट्ठ – कहा है, सुकयं - अच्छा किया, किच्चाई – कार्यों को, सया – सदा, कुव्वई - करता रहे।
मूलार्थ – विनयवान् शिष्य बिना प्रेरणा किया हुआ प्रेरणा किए हुए की तरह शीघ्र कार्यकारी हो और गुरुओं के उपदेश के अनुसार ही सदा कार्यों को करता रहे।
टीका- - इस गाथा में विनीत शिष्य की निपुणता के सम्बन्ध में उसके कर्त्तव्य का वर्णन किया गया है। विनयशील शिष्य का यह धर्म है कि वह गुरुजनों की प्रेरणा प्राप्त न होने पर भी प्रेरणा किए गए की भांति बड़ी शीघ्रता से कार्य का सम्पादन करे और करने योग्य हर एक कार्य को बड़ी निष्ठा से करे और गुरुजनों द्वारा उसे कहकर न करवाना पड़े, किन्तु उनके उपदेश के अनुसार उस कार्य को उनकी प्रेरणा के बिना ही इस खूबी और शीघ्रता से करे जिससे कि गुरुजनों को उसकी प्रशंसा करने के लिए विवश होना पड़े।
सारांश यह है कि विनीत शिष्य अपनी कार्य- दक्षता से भी गुरुजनों की प्रसन्नता के सम्पादन में किसी प्रकार की कसर बाकी न रखे, यही उसके विनय-धर्म के अनुशीलन का सुखद सार है। उपसंहार—
नच्चा नमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायए । हवइ किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥ ४५ ॥ ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते ।
भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा ॥ ४५ ॥
पदार्थान्वयः–नच्चा—जान करके, मेहावी – बुद्धिमान्, नमइ – नम्र होता है, लोए - लोक में, से—उसकी, कित्ती – कीर्ति, जायए — होती है, किच्चाणं – कृत्यों का, सरणं - शरणभूत, हवइ — होता है, भूयाणं – वनस्पति आदि भूतों का, जगई— पृथ्वी, जहा — जैसे शरण है ।
मूलार्थ - विनय के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान् शिष्य विनम्र हो जाता है, लोक में उसकी कीर्ति होती है, वनस्पति आदि भूतों का शरण अर्थात् आश्रय जैसे पृथ्वी है, इसी प्रकार समस्त कार्यों का वह शरणभूत-आश्रय स्वरूप बन जाता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 100 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं