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लाभइस्संति— लाभ देंगे, विउलं — विस्तार पूर्वक, अट्ठियं – अर्थ और सुयं श्रुता ।
मूलार्थ - पढ़ने से पूर्व जिनकी स्तुति की गई है ऐसे तत्त्ववेत्ता पूज्य आचार्य जिस पर प्रसन्न हैं, ऐसे शिष्य को वे प्रसन्नता पूर्वक बहुत विस्तृत अर्थ और श्रुत का लाभ देंगे ।
टीका—अर्थ-सहित आगमादि श्रुत - ज्ञान की प्राप्ति का आधार केवल पूज्य गुरुजनों की प्रसन्न है । उनकी प्रसन्नता के बिना श्रुत - ज्ञान की न तो प्राप्ति ही हो सकती है और न वह सफल ही हो सकता है, इसलिए तत्त्व - जिज्ञासु आगमाभ्यासी शिष्य को सबसे पहले यही उचित है कि वह जिस तरह भी हो सके अपने पूज्य गुरुजनों की प्रसन्नता प्राप्त करने का उद्योग करे । गुरुजनों की प्रसन्नता
दुर्लभ श्रुत - ज्ञान की प्राप्ति और उसकी सफलता अवश्यंभावी है । प्रसन्न - हृदय गुरुजन अपने विनीत • शिष्य को श्रुत ज्ञान का अलभ्य लाभ देने में जरा भी संकोच नहीं करते और गुरुजनों द्वारा प्रसन्नता पूर्वक दिया हुआ श्रुत-ज्ञान शिष्य के लिए अधिक लाभप्रद होता है, क्योंकि प्रसन्न हुए गुरुजन अपने विनीत शिष्य के सामने आगमादि श्रुत - ज्ञान के किसी भी गुप्त रहस्य को छिपाकर नहीं रखते, अपितु उनके आगमादि श्रुत के अध्यापन में तत्त्वबोध सम्बन्धी अधिक स्पष्टता, अर्थ-विषयक अधिक मार्मिक विस्तार और ज्ञान-प्राप्ति के विषय में अधिक साफल्य का होना अनिवार्य है। बस, इसी रहस्य का व्यक्तीकरण कुछ न्यूनाधिक शब्दों में उक्त गाथा में किया गया है। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान् शिष्य पढ़ने से पूर्व तत्त्ववेत्ता आचार्यों को स्तुति आदि के द्वारा प्रसन्न करे । छद्मस्थों को स्तुति आदि से प्रसन्नताः प्रायः हो ही जाती है। फिर प्रसन्न हुए गुरुजन उस शिष्य को अधिक विस्तार वाले अर्थ—मोक्ष पदार्थ और आगमादि श्रुत-विद्या का अवश्य लाभ देते हैं ।
सारांश यह कि आगमादि श्रुतज्ञान की प्राप्ति का मूल साधन पूज्य आचार्यों की प्रसन्नता है, अतः उसी का संपादन करना चाहिए। वास्तव में तत्त्ववेत्ता गुरुजन एक प्रकार की कामधेनु गाय हैं । उनको प्रसन्न करने से ही श्रुतज्ञान रूप दुग्धामृत की प्राप्ति होती है एवं उनकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी उतना ही अधिक दुग्धामृत उनसे प्राप्त हो सकेगा। इसलिए कामधेनु रूप गुरुजनों की अधिक-सेअधिक सेवा-भक्ति करके उनसे अधिक-से-अधिक श्रुतज्ञान का लाभ प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिए ।
अब विनय की ऐहिक फलश्रुति का उल्लेख किया जाता है—
स पुज्जसत्थे सुविणीयसंसए, मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया । तवो समायारि-समाहिसंवुडे, महज्जुई पंच वयाई पालिया ॥ ४७ ॥
स पूज्यशास्त्रः सुविनीतसंशयः, मनोरुचिस्तिष्ठति कर्मसंपदा । तपः समाचारी-समाधिसंवृतः, महाद्युतिः पंच व्रतानि पालयित्वा ॥ ४७ ॥ पदार्थान्वयः —– स—–—वह शिष्य, पुज्जसत्थे – पूज्य शास्त्र, सुविणीयसंसए - सर्वथा सन्देह-रहित, मणोरुई—– गुरुजनों के मन की रुचि और कम्मसंपया - दशविध कर्मसम्पदा में, चिट्ठ — ठहरता है,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 102 / विणयसुयं पढमं अज्झणं