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________________ 64] [ जैन विद्या और विज्ञान । एक तेजोलेश्या सम्पन्न मुनि है, जिसे तेजोलब्धि प्राप्त है, वह कभी क्रोध में आकर उसका प्रयोग करता है, जैसे गोशालक ने महावीर पर किया था। भगवान महावीर यात्रा कर रहे थे। गोशालक उनके साथ था। एक संन्यासी पंचाग्नि ताप रहा था, उसने छेड़छाड़ की। क्रोध में आकर उसने तेजोलेश्या का प्रयोग कर दिया। शक्ति का प्रयोग किया, जलने की स्थिति आ गई। लगा कि भस्म हो जाएगा। उसी समय भगवान महावीर ने शीतल लेश्या का प्रयोग कर उसे शान्त कर दिया। तेजोलब्धि की शक्ति इतनी है कि अनेक प्रान्तों को वह भस्म कर सकती है। एक अणुबम से भी अधिक शक्तिशाली तेजोलब्धि का प्रयोग है। किन्तु वह सारा पुद्गल है, अजीव है, निर्जीव है। अब उसे अग्नि कह दें या आज की भाषा में विद्युत्। वह सजीव नहीं है। ' बिजली अग्नि नहीं है, इसका एक कारण तो यह है कि यह बिना वायु के जलती है। भगवती सूत्र में कहा गया है - 'न विना वाऊकाएण अग्गी पज्जलई। वायु के बिना अग्नि जलती नहीं है। अग्नि को हमेशा ऑक्सीजन चाहिए। वायु नहीं मिलेगी, अग्नि नहीं जलेगी। ऊर्जा होगी, किन्तु अग्नि नहीं जलेगी। जहां बिजली का प्रसंग है, वहाँ वैक्यूम करना होता है। वायु का निष्कासन जरूरी है वहां। वहां आक्सीजन का. सुयोग मिल जाए तो वह आग का रूप ले सकती है। किन्तु जहाँ ऊर्जा है वहाँ अग्नि नहीं है। सूर्य का ताप कितना भंयकर होता है। आज तो सौर ऊर्जा का प्रयोग भी होने लगा है। चल्हा भी जलता है. रसोई भी बनती है और भी अनके कार्य होते है पर वह सारी निर्जीव अग्नि है। वह सजीव अग्नि नहीं है। विद्युत् है, अग्नि नहीं है। सौर ऊर्जा या जो भी ऊर्जा है वह तैजस् परमाणु है यानी तैजस वर्गणा है, परमाणु है। इसलिए आगम में इन्हें अग्निसदृश द्रव्य कहा गया है, अग्नितुल्य द्रव्य । अग्नि जैसा द्रव्य है, इसलिए इसका नाम अग्नि रखा गया है। जयाचार्य ने भगवती की व्याख्या में कहा - अग्निद्रव्य सरिस - अग्नि जैसा द्रव्य । यह अग्निकायिक जीव नहीं है। विद्युत् एक ऊर्जा का प्रवाह है। यह सारा निर्णय हो गया। इस निर्णय के आधार पर फिर गुरुदेव ने यह घोषणा भी कर दी कि बिजली हमारी दृष्टि में अचित्त है, निर्जीव है। शास्त्रार्थ के अनेक आधारों पर यह सिद्ध हो गया कि अग्नि जीव नहीं, मात्र ऊर्जा है। तैजस वर्गणा के पुद्गल हैं, इसलिए निर्जीव है। यह हमारी मान्यता है। जैनों में भी कुछ लोग इसे सजीव मानते है। यह तो अपना-अपना विचार है। अगर कोई खोज न करे तो परम्परा से जो चल रहा है, वह माना. जाता
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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