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[ जैन विद्या और विज्ञान
वृतुलाकार गति वाले सिद्धान्त पर आधृत है। जैन अवधारणा में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के रूप में काल-चक्र को मान्य किया है। इस सिद्धान्त में काल लौटता है और काल के साथ जुड़ी घटनाओं की भी पुनरावृति होती है। इस संसार में नया जैसा कुछ भी नहीं है - ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले न हो चुका हो।
आचार्य महाप्रज्ञ ने काल की वर्तुलीय धारणा को स्पष्ट कर, एक नया आयाम प्रस्तुत किया है जो बहुत उपयोगी है। भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर हांकिग भी इस प्रकार की कल्पना से दूर नहीं है। वे लिखते हैं कि काल आकाश में आगे की दिशा में गति करता है अतः उसके लौटने की संभावना नहीं रहती लेकिन अगर काल किन्हीं परिस्थितियों में दिशा के बंधन से मुक्त । हो जाए तो काल पीछे की ओर भी गति कर सकता है। इससे यह संभावना बनती है कि काल अतीत में भी लौट सकता है।
यद्यपि जैन दर्शन में आकाश और काल को अलग-अलग मौलिक द्रव्य माना है किन्तु घटना के वर्णन में देश और काल का साथ-साथ ही वर्णन किया है। 9. विद्युत् : सचित्त या अचित्त ?
आचार्य महाप्रज्ञ ने जैन आगमों के अनेक विषयों को अपनी प्रज्ञा से स्पष्ट किया है उनमें 'विद्युत् सचित्त है या अचित्त सर्वाधिक चर्चित विषय रहा है। इसका मूल कारण यह है कि विद्युत् की अवधारणा वर्तमान विज्ञान की देन है और तेउकाय का जैन आगमिक विषय कई हजार वर्ष प्राचीन है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आगमिक और वैज्ञानिक अनुसंधान वृति से विद्युत को अचित्त निर्जीव सिद्ध किया है। पाठकों के लिए यह विषय अत्यन्त रुचिकर रहेगा क्योंकि अनेक जैन मुनि विद्युत को सचित्त मानकर विद्युतीय यंत्रों से परहेज करते हैं। अतः आचार्य महाप्रज्ञ का लेख उन्हीं के शब्दों में प्रेषित हैं।
___ भगवान महावीर का भारतीय दर्शन को एक मौलिक अवदान है। षड्जीवनिकाय का सिद्वान्त। जीवों के छह निकाय हैं - पृथ्वीकाय, अप्काय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । इनमें पहले पांच स्थावरकाय (गतिहीन) हैं। त्रसकाय गतिशील हैं। स्थानांगसूत्र में बतलाया गया है - पांच. स्थावरकाय परिणत और अपरिणत - दोनों प्रकार के होते हैं, सचित्त और अचित्त – दोनों प्रकार के होते हैं। पृथ्वी सचित्त-सजीव भी होती है, अचित्तनिर्जीव भी होती है। जल सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार का होता है। पानी