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[ जैन विद्या और विज्ञान
है, जैसे - नाक से गंध का ज्ञान होता है, चक्षु से रूप का ज्ञान होता है। ओघज्ञान निर्विभाग होता है। वह किसी इन्द्रिय या मन से नहीं होता। किन्तु वह चतना की, इन्द्रिय और मन से पृथक, एक स्वतंत्र क्रिया है। ओघ संज्ञा की यह विशेषता है कि यह अनुकरण की मनोवृत्ति है। जैसे लताएँ वृक्ष पर चढ़ती है, यह वृक्षारोहण का ज्ञान ओघ संज्ञा है।
ओघज्ञान को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है - बल्ली वृक्ष आदि पर आरोहण करती है। उसका यह आरोहण-ज्ञान न स्पर्शन इन्द्रिय से होता है और न मानसिक निमित्त से होता है। वह चेतना के अनावरण की एक स्वतन्त्र क्रिया है। ।
वर्तमान के वैज्ञानिक एक छठी इन्द्रिय की कल्पना कर रहे हैं। उसकी. . तुलना ओधसंज्ञा से की जा सकती है। उनकी कल्पना का विवरण इन शब्दों में है - सामान्यतया यह माना जाता है कि हमारे पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं - आंख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा । वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्तं एक छठी ज्ञानेन्द्रिय भी है।
इसी छठी इन्द्रिय को अंग्रेजी में 'ई-एस-पी' (एक्सट्रासेन्सरी पर्सेप्शन) अथवा अतीन्द्रिय अंतःकरण कहते हैं। ..
कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि प्रकृति ने यह इन्द्रिय बाकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से भी पहले मनुष्य को उसके पूर्वजों को तथा अनेक पशु-पक्षियों को प्रदान की थी। मनुष्य में तो यह शक्ति जब तक ही प्राकृतिक रूप में पाई गई थी, क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसने इसका 'अभ्यास' त्याग दिया। अनेक पशु-पक्षियों में यह अब भी देखने में आती है। उदाहरण के लिए -
1. भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर ___ अपने बिलों, घोंसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं। 2. कई मछलियां देख नहीं सकती, परन्तु सूक्ष्म विद्युत धाराओं के
जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों से बचकर संचार करती है। आधुनिक युग में आदिम जातियों के मनुष्यों में भी यह छठी इन्द्रिय काफी हद तक पाई जाती है। उदाहरण के लिए -
1. आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का कहना है कि वे धुएं के संकेत
का प्रयोग तो केवल उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिए करते हैं और इसके बाद उन दोनों में विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से ही होता है।