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________________ . नया चिन्तन ] [57 लेखक की दृष्टि में उपर्युक्त प्रकरण का यह निष्कर्ष निकलता है कि कर्म को प्रकम्पित करने के लिए श्वास और संकल्प प्रधान है उसका संभवतः यह कारण है कि कर्म का भौतिक स्वरूप चतुःस्पर्शी पुद्गलों से बना है और चतुःस्पर्शी पुद्गलों का प्रकम्पन चतुःस्पर्शी पुद्गल ही कर सकते हैं। यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि सूक्ष्म, सूक्ष्म को प्रभावित करता है। इस कारण कर्म प्रकम्पन के लिए मन और श्वास के पुद्गल उपयोगी हैं। श्वास के पुद्गल मन के पुद्गलों से स्थूल हैं इसलिए कर्म प्रकम्पन में पहले श्वास की साधना और बाद में मन की साधना उपयोगी बनती है। यही स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का रास्ता है। हम इसके लिए श्वास के पुद्गलों को शरीर और मन के बीच आया हुआ एक पुल (Bridge) अर्थात् संधि-बिंदु के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। मन और भावनाओं के प्रत्येक परिवर्तन का असर श्वास पर और आगे चलकर शरीर पर पड़ता है। इसी प्रकार श्वास क्रिया का परिवर्तन भी हमारे मन और भावनाओं को बदलता है। अतः तप के साथ श्वास-प्रेक्षा और संकल्प की तीव्रता का होना आवश्यक है। 6. संज्ञाएं (ओघ, लोक) . संज्ञा का अभिप्राय आत्मा और मन की प्रवृत्ति से है। मनोविज्ञान की दृष्टि से ये मनोवृत्तियाँ कहलाती हैं। जैन आगम साहित्य में संज्ञा के दो अर्थ किए हैं - आवेग (संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति) और मनोविज्ञान। संज्ञा के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम आठ प्रकार संवेगात्मक तथा अंतिम दो प्रकार ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और आन्तरिक उत्तेजना से होती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के चार-चार कारंण चतुर्थ स्थान में निर्दिष्ट हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के कारणों का निर्देश भी प्राप्त होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने उन संज्ञाओं का विशेष विवेचन किया है जो इन्द्रिय और मन से परे है। ये दो संज्ञाएं हैं जो ओघ और लोक संज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है। इनका विस्तार से वर्णन निम्न प्रकार है। - ओघ संज्ञा - सामान्य अवबोध क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति किया है। ज्ञान के दो निमित्त हैं। इन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान और अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत इन्द्रिय से होता है। यह इन्द्रिय निमित्त से होने वाला ज्ञान है। अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान के दो प्रकार है - मानसिक ज्ञान और ओधज्ञान । इन्द्रियज्ञान विभागात्मक होता
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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