________________
• नया चिन्तन ]
[55
भी है - आयुष्य कर्म की चार उत्तर प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। इसी प्रकार मोह कर्म की मुख्य दो प्रकृतियों का दर्शन मोह और चरित्र मोह का भी परस्पर संक्रमण नही होता। कर्म सिद्धांत की पूर्णता इसी में है कि इसमें कर्म-परिवर्तन को स्वीकार किया गया है। इससे पुरुषार्थ का महत्व जैन दर्शन में कभी कम नहीं हुआ है। 5. स्वभाव परिवर्तन में पुनर्भरण क्रियाविधि
आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वभाव परिवर्तन के लिए पुनर्भरण क्रियाविधि (Feedback Mechanism) का नया प्रयोग प्रस्तुत किया है। इस पद्धति को स्पष्ट करने के लिए जैन धर्म में तप के द्वारा होने वाली कर्म निर्जरा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं - उदाहरण के लिए एक व्यक्ति उपवास करता है। उपवास का प्रभाव स्थूल शरीर पर होता है। सिद्धान्त यह है कि जिसने उपवास किया, उसके कर्म की निर्जरा हुई, कर्म का शोधन हुआ। कर्म तो स्थूल शरीर में नहीं है। कर्म तो है कर्म शरीर में, जो सूक्ष्मतर शरीर है। निर्जरा वहां हुई और उपवास यहां स्थूल शरीर में हुआ। यह कैसे हो सकता है? यह बड़ा विचित्र प्रश्न है। हम ध्यान करते हैं, उपवास करते हैं, स्वाध्याय करते हैं जितने भी शोधन के उपाय हैं वे होते हैं स्थूल शरीर के द्वारा और शोधन होता है सूक्ष्मतर शरीर का।
स्थूल और सूक्ष्म शरीर के परस्पर के सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आचारांग सूत्र का एक प्रसिद्ध वाक्य है -
मुणी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं। मुनि ज्ञान को प्राप्त कर, कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे। जब तक कर्म शरीर प्रकम्पित नहीं होगा तब तक यह स्थूल शरीर प्रकम्पित नहीं होगा। हमें पहुंचना है स्थूल से सूक्ष्म शरीर तक। यह हमारी पुनर्भरण (Feedback) की पद्धति हो गई। उपवास स्थूल शरीर करता है, कष्ट भी स्थूल शरीर को होता है और शोधन कर्म-शरीर में होता है। बड़ा अजीब सा लगता है। स्थूल शरीर पुनर्भरण है। सूक्ष्म शरीर के प्रकम्पन स्थूल शरीर को प्रभावित करते हैं और स्थूल शरीर के प्रकम्पन सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं। दोनों में एक सम्बन्ध है। दोनों में आदान-प्रदान हो रहा है। जो घटना स्थूल शरीर में हो रही है उसका प्रभाव सूक्ष्मतर शरीर (कर्म-शरीर) तक पहुंचता है और जो कर्म शरीर में स्पंदन होता है वह स्थूल शरीर तक पहुंचता है। यह कैसे होता है? इसके उत्तर में आचार्य महाप्रज्ञ दो प्रयोग प्रस्तावित करते हैं -