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[ जैन विद्या और विज्ञान
(iv) भेद विज्ञान की साधना चेतना और अचेतना के सापेक्ष संबंध के
आधार पर ही हो सकती है , आध्यात्मिक दृष्टि से इसका बहुत
मूल्य हैं। 4. कर्म-परिवर्तन का सिद्धान्त
कर्मवाद में कर्म बन्धन की दस अवस्थाओं का वर्णन हैं। इनमें कर्मों की उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण चार अवस्थाओं में परिवर्तन किया जा सकता है। इसमें एक अवस्था संक्रमण हैं। इसका हम पाठकों के लिए विस्तार से चिंतन करेंगे। संक्रमण
वीर्य विशेष से सजातीय कर्म-प्रकृतियों के एक दूसरे में परिणमन करने को संक्रमण कहा जाता है। प्रश्न यह बना हुआ था कि क्या शुभ कर्म प्रकृति अशुभ में तथा अशुभ कर्म प्रकृति शुभ में संक्रमित हो सकती है? संक्रमण के संबंध में पूर्व धारणा बनी हुई थी कि शुभ कर्म, अशुभ कर्म में नहीं बदलते और अशुभ कर्म, शुभ कर्म में नहीं बदलते। शुभ कर्म, अन्य शुभ प्रकृतियों में तथा अशुभ कर्म अशुभ प्रकृतियों में बदल जाते है। इस धारणा के संबंध में नई स्थापना देते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा है कि यह कहना न्यायसंगत होगा कि पुरुषार्थ से कर्म में परिवर्तन संभव है। पुण्य को पाप में और पाप को पुण्य में बदलने की जीव में क्षमता रहती है। जैन दर्शन में कर्म परिवर्तन का सिद्धान्त मान्य है। शुभ कर्म प्रकृति का अशुभ कर्म प्रकृति में परिणमन होता है और अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति के रूप में परिणमन होता है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश - ये चारों एक रूप से दूसरे रूप में संक्रान्त हो जाते है। परिवर्तन के ये निम्न रूप बनते है -
(i) शिथिल बन्धन गाढ़ बन्धन में बदल जाता है। (ii) गाढ़ बंधन शिथिल बंधन में बदल जाता है।
यह प्रकृति बंध का परिर्वतन है। अशुभ परिणाम धारा के कारण अशुभ प्रकृति का शिथिल बन्धन तीव्र बंधन में बदल जाता है और शुभ परिणाम धारा के कारण अशुभ प्रकृति का तीव्र बंधन शिथिल बंधन में बदल जाता है। उदाहरणतः जैसे कोई व्यक्ति साता वेदनीय कर्म का अनुभव कर रहा है, इस समय उसके अशुभ कर्म की परणिति प्रबल हो गई, परिणाम स्वरूप, साता वेदनीय असाता वेदनीय में संक्रान्त हो गया। संक्रमण के कुछ अपवाद