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नया चिन्तन ]
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जानकारी हमें 'स्नेह प्रतिबद्ध' से मिलती हैं। जीव में स्नेह हैं - आश्रव और पुद्गल में स्नेह हैं - आकर्षित होने की अर्हता। इस उभयात्मक स्नेह के द्वारा परस्पर संबंध स्थापित होता हैं। नौका में छिद्र है तो पानी अपने आप उसमें भर जायेगा। जीव और पुद्गल के संबंध को बन्ध,स्पर्श, अवगाह, स्नेह प्रतिबद्ध और घटा (एकीभूत अवस्था) इन पांच रूपों में प्रतिपादित किया गया है। इस विषय को जैन दर्शन के आधार से स्पष्टता से प्रकट किया हैं कि संसारी जीव स्वरूपतः चेतन होते हुए भी पुद्गल या शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। इन दोनों में नैसर्गिक संबंध चला आ रहा है। ये दोनों परस्पर संबद्ध है, इनमें अन्तःक्रिया होती है और इसलिए वे एक दूसरे को प्रभावित करते
. सारांश यह है कि जैन धर्म में आत्मा अमूर्त हैं अरूप है और कर्म परमाणु मूर्त है, रूपवान है। जैन दर्शन की मान्यता है कि आत्मा कर्म परमाणुओं से आबद्ध हैं। प्रश्न स्वाभाविक है कि अमूर्त के साथ मूर्त का संबंध कैसे होता है ? इसके उत्तर में यह स्वीकार किया जाता है कि संसारी आत्मा बद्ध है, कर्म पुद्गलों से बंधी हुई है वह अमूर्त नहीं हो सकती हैं। .. पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में भी मन और शरीर के संबंध की समस्या बहुत दिनों से चली आ रही है । देकार्त, स्पिनोजा, लाइबनिज की मान्यताओं का संदर्भ देते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने मनोविज्ञान के संबंध में लिखा है कि
... मनोविज्ञान में भी जिज्ञासा है कि शरीर और मन में क्या संबंध है? शरीर मन को प्रभावित करता है? ठीक यही प्रश्न हमारे सामने है कि शरीर, चेतना को प्रभावित करता है या चेतना शरीर को प्रभावित करती हैं? इन दोनों में परस्पर क्या संबंध हैं ? ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते है, इन्हें अलग नही किया जा सकता हैं। शरीर और चेतना को सर्वथा स्वतन्त्र स्वीकार कर हम उनके संबंध और पारस्परिक प्रभाव की व्याख्या नहीं कर सकतें हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि -
(i) अनेकान्त दृष्टि के अनुसार चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं - है, इसलिए इनमें संबंध हो सकता हैं। (ii) इस संसार में जीव का अस्तित्व पुद्गल मुक्त नहीं हैं, संसारी
जीव शुद्ध नहीं यौगिक हैं। (iii) चेतन और अचेतन को सर्वथा भिन्न तथा संसारी जीव को सर्वथा
शुद्ध मानने पर ही संबंध की समस्या जटिल बनती है ।