________________
52 ]
[जैन विद्या और विज्ञान
नई मौलिक स्थापना की हैं। ऐसी स्थापना कोई दार्शनिक धर्माचार्य ही कर सकता हैं। वे लिखते हैं -
आचारांग में आत्मा और जीव की चर्चा आचार के प्रसंग में की गई हैं। वहां द्रव्य मीमांसा का स्वतन्त्र स्थान नहीं हैं। सूत्रकृतांग में भी द्रव्य मीमांसा प्रासंगिक हैं। उसका विस्तृत रूप व्याख्या-प्रज्ञप्ति में ही मिलता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति में लोक की व्याख्या पंचास्तिकाय के आधार पर की गई हैं। कहा गया है कि आकाश दो प्रकार का हैं - लोकाकाश और अलोकाकाश । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश , जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायये पांचों लोक प्रमाण है - जितने आकाश में ये व्याप्त है उतना ही लोक है, जहाँ ये नहीं हैं, वह अलोक हैं।
यह सही है कि अलोक में जीव और पुद्गल नहीं है लेकिन यह लोकस्थिति के सिद्धान्त का एक प्रकार है। अतः यह बहुत संभव है कि जैन दर्शन में द्रव्य के अर्थ में अस्तिकाय का प्रयोग प्राचीन हैं और द्रव्य का प्रयोग. : बाद का है लेकिन पंचास्तिकाय की स्थापना लोक-अलोक, जीव-अजीव . और मोक्ष के सिद्धान्त के साथ ही हुई है, इसे बाद में मानना न्याय संगत नहीं। 3. जीव और पुद्गल का संबंध भौतिक या अभौतिक
जैन दर्शन में आत्मा को अभौतिक और पुद्गल कर्म पदार्थ को भौतिक माना है। संसारी अवस्था में आत्मा और कर्म परस्पर बद्ध रहते हैं। यह बहुचर्चित प्रश्न रहा है कि जीव और पुद्गल दोनों में अत्यंताभाव हैं, त्रैकालिक स्वतन्त्रता है फिर भी इनमें परस्पर संबंध क्यों होता है ? जीव और पुद्गल का संबंध भौतिक होता है या अभौतिक ? यह भी एक प्रश्न है।
इस संबंध में अपनी मौलिक स्थापना करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते है कि अनेकान्त दृष्टि से चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं है, इसलिए इनमें संबंध हो सकता हैं। चेतन और अचेतन को सर्वथा भिन्न तथा संसारी जीव को सर्वथा शुद्ध मानने पर ही संबंध की समस्या जटिल बनती हैं। वे विस्तार से स्पष्ट करते हैं कि -
- जीव और पुद्गल का संबंध भौतिक होता है या अभौतिक ? यह एक प्रश्न है। संसारी अवस्था में जीव सर्वथा अभौतिक नहीं होता, इसलिए जीव . और पुद्गल के संबंध को भौतिक माना जा सकता है। यह संबंध केवल जीव या पुद्गल की ओर से ही नहीं होता, किन्तु दोनों ओर से होता हैं। इसकी