________________
नया चिन्तन]
[51
हैं। इनका गंभीर अध्येता नहीं कह सकता कि जैन दर्शन दूसरों के विचारों का संग्रह मात्र है।
षडजीव निकाय, लोक-अलोकवाद, पंचास्तिकाय, परमाणुवाद, तमस्काय, कृष्णराजि - ये जैन दर्शन के सर्वथा स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रज्ञापक हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने जैन दर्शन की मौलिकता स्थापित करते हुए आचार्य सिद्धसेन का एक उद्धरण दिया है कि -
"भगवान ! आपकी सर्वज्ञता को सिद्ध करने के लिए मुझे बहुत प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। आपके द्वारा प्रतिपादित षडजीव निकायवाद आपके सर्वज्ञत्व का प्रबलतम साक्ष्य हैं।" 2. लोक-अलोक की प्ररूपणा
पं. दलसुख मालवणिया के अनुसार पंचास्तिकाय और षडद्रव्य की कल्पना, नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद हुई हैं। उनकी पुस्तक 'जैन दर्शन का आदिकाल' में टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की चर्चा ने तत्त्व विचारणा में स्थान पाया हैं। उनकी दृष्टि में जीव और अजीव का वर्गीकरण ही मुख्य रूप से प्रचलित था। आचार्य महाप्रज्ञ ने उक्त मन्तव्य की समीक्षा करते हुए इसका समाधान दिया है कि भगवान महावीर ने जीव और अजीव की प्ररूपणा से पहले लोक और अलोक की प्ररूपणा की हैं अतः पंचास्तिकाय या षडद्रव्य की कल्पना नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद संभव नहीं हैं। मालवणिया जी सूत्रकृतांग की जिस सूचि को सात पदार्थ या नव तत्त्व का आधार मानते हैं उसी सूची में सबसे पहले लोक और अलोक का, उसके पश्चात जीव और अजीव का उल्लेख हैं। अतः इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भगवान महावीर ने जीव और अजीव की प्ररूपणा से पहले लोक और अलोक की प्ररूपणा की है। ___मालवणियाजी भगवती सूत्र का प्रमाण देते हुए लिखते हैं कि वहां प्रश्न किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं ? वहां उत्तर दिया गया हैं कि नहीं हिला सकता और उसका जो कारण बताया गया है उससे स्पष्ट होता है कि जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया हैं। मालवणियाजी का निष्कर्ष यह रहा कि यदि भगवती के इस उत्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय द्रव्य की कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता। इस मन्तव्य की गहरी मीमांसा आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती की भूमिका में प्रस्तुत कर, एक