SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50 ] [ जैन विद्या और विज्ञान महाप्रज्ञ की सैद्धान्तिक स्थापनाएं आचार्य महाप्रज्ञ इस युग के महान दार्शनिक संत हैं। जैन आगम साहित्य के अनुसंधान तथा संपादन कार्य के साथ आपने जैन आगमों पर भाष्य-लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाया है। आचारांग भाष्य और भगवती भाष्य की रचना कर भाष्य लेखन के ठहराव को गति प्रदान की है। जैन साहित्य में तत्त्व-ज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। भगवती भाष्य में तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर दर्शन शास्त्र, आचार शास्त्र, जीव विद्या, सृष्टि विद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का गंभीर' विवेचन प्रस्तुत किया है। भगवती भाष्य में तथा अन्य साहित्य में उन्होंने अनेक गंभीर, बहुचर्चित प्रश्नों का समाधान देते हुए, कई नई मौलिक स्थापनाएँ की हैं। अनुसंधान प्रवृत्ति में अपने वैज्ञानिक सोच को महत्त्व दिया हैं तथा विज्ञान की खोजों की मीमांसा की हैं। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रदत्त कुछ मौलिक स्थापनाएँ पाठक गण के लिये प्रस्तुत है : - . 1. जैन दर्शन का स्वतंत्र अस्तित्व पश्चिमी विचारकों ने लिखा है - जैन दर्शन अन्यान्य दर्शनों के विचारों का संग्रह-मात्रं है, इसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस प्रश्न को गंभीरतापूर्वक लेते हुए कहा है कि पश्चिमी विद्धानों की इस स्थापना को हम सर्वथा निराधार नहीं मानते, इसका एक आधार भी है। मध्य यग के आचार्यो ने न्याय या तर्कशास्त्र के जिन ग्रन्थों की रचना की उसमें बौद्ध और नैयायिक आदि दर्शनों के विचारों का संग्रह किया गया है। उन ग्रन्थों को पढ़कर जैन दर्शन के बारे में उक्त धारणा होना अस्वाभाविक नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में वे दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं है। इसकी विवेचना करते हुए लिखते हैं कि - (i) पहली भ्रान्ति यह है कि तार्किक ग्रन्थों को दार्शनिक ग्रन्थ माना जा रहा है। (ii) दूसरी भ्रान्ति इसी मान्यता के आधार पर पल रही है कि जैन दर्शन दूसरे दर्शनों के विचार का संग्रह-मात्र हैं। ___ पहली भ्रान्ति टूटे बिना दूसरी भ्रान्ति नहीं टूट सकती। जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक ग्रन्थ आगम-ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy