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नया चिन्तन]
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कैंसर जैसे असाध्य रोग को मिटाने की क्षमता है। ऐसी वनस्पतियां हैं जो मनुष्य के शरीर को संतुलित रखती हैं, रक्तचाप को संतुलित रखती हैं। यदि ये वनस्पतियां नष्ट हो गई तो मनुष्य बहुत बड़े लाभ से वंचित रह जाएगा। संतुलन परम आवश्यक है।
आचार्य महाप्रज्ञ पर्यावरण के संबंध में कहते हैं कि हमारी सारी दुनिया एक जोड़ है। कोई तोड़ नहीं है। मात्र एक योग है। योग से ही सारा जीवन चलता है। जगत में, प्रकृति में जितनी जीव-जातियां और प्रजातियां हैं, जितने पदार्थ हैं उन सबका जोड़ है।. जोड़ है इसलिए सब कुछ चल रहा है। जहां भी जोड़ से थोड़ा सा टूटा, खराबी हो जाती है, सब कुछ लड़खड़ा जाता है। एक की टूट के कारण प्रकृति की सारी व्यवस्था प्रभावित हो जाती है। वे कहते हैं कि एक जंगल कटता है तो वैज्ञानिक चिंतित हो उठते हैं, कि केवल जंगल ही नही कटता उसके साथ-साथ वर्षा की कमी हो जाती है, रेगिस्तान बढ़ जाता है, अनाज की कमी हो जाती है, न जाने और कितनों · पर असर होता है। एक के साथ अनेक जुड़े हुए हैं। समता ही पर्यावरण का विज्ञान
. समता ही पर्यावरण का विज्ञान है। इस पर्यावरण के विज्ञान को अध्यात्म के साधकों ने बहुत पहले ही खोज लिया था। उन्होंने समत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा - 'किसी को मत मारो, चोट मत पहुंचाओ, परिताप मत करो, क्लेश मत दो। सबको समान समझो। सबके साथ समत्व का व्यवहार करो।' संयम की चेतना का संबंध अनुकम्पा (दया) से जोड़ते हुए वे लिखते हैं कि -
अनुकम्पा के दो रूप होते हैं – विधेयात्मक और निषेधात्मक । भगवान महावीर ने अहिंसा के संयम स्वरूप को मान्य किया है। अनुकम्पा अहिंसा का ही एक अवान्तर प्रकार है, इसलिए उसका सीमा स्तम्भ संयम ही हो सकता है। सूत्रकार ने अनुकम्पा की प्रयोगात्मक व्याख्या में 'दुःख न देना'इसका निर्देश किया है, सुख देना - इसका निर्देश नहीं किया है। सुखात्मक अनुकम्पा समाज की प्रकृति के अनुकूल हो सकती है, किंतु संयम-धर्म की प्रकृति के अनुकूल नहीं हो सकती। मनुष्य आरम्भ में प्रवृत्त होकर दूसरों को दुःख देता है। अनुकम्पा का भाव जागृत होने पर वह आरम्भ का संयम करता है, इसलिए वह दूसरों को दुःख नहीं देता। अनुकम्पा का यह स्वरूप सार्वभौम है, सार्वकालिक और सार्वदेशिक है और सर्वथा निर्दोष है। इससे विश्व मैत्री फलित होती है और इसी से आत्म-तुला के सिद्धान्त की पुष्टि होती है।