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________________ नया चिन्तन ] मनुष्य यह भी जन्मता है । यह भी बढ़ता है । यह भी चैतन्ययुक्त है। यह भी छिन्न होने पर म्लान होता है। यह भी आहार करता है । यह भी अनित्य है । यह भी अशाश्वत है । यह भी उपचित और अपचित होता है । ' यह भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है। वनस्पति यह भी जन्मती है । यह भी बढ़ती है। यह भी चैतन्ययुक्त है। यह भी छिन्न होने पर म्लान होती है। यह भी आहार करती है। यह भी अनित्य है । यह भी अशाश्वत है । यह भी उपचित और अपचित होती है। [ 47 यह भी विविधि अवस्थाओं को प्राप्त होती है। विश्व मैत्री का अभिप्राय उपर्युक्त अध्ययन से ज्ञात होता है कि स्थावर जीव समस्त जगत में व्याप्त हैं, ऐसे में विश्व मैत्री के अभिप्राय की स्पष्टता को समझने की आवश्यकता है क्योंकि इस जगत में अनन्त आत्माएं हैं, सभी से मैत्री करना कैसे संभव है ? इस संबंध में वैज्ञानिक क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर जो कार्य हो रहा है, उसका उल्लेख करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि सृष्टिसंतुलन - शास्त्र आधुनिक विज्ञान के लिए विज्ञान की एक नई शाखा हो सकती है लेकिन एक जैन के लिए यह सिद्धान्त ढाई हजार वर्ष पुराना है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के अस्तित्व को, अपने अस्तित्व के समान माना है । इनके अस्तित्व को मिटाकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता । वनस्पति आदि अन्य निकायों में जीवन है उसको विनष्ट करना हिंसा है। हिंसा स्वयं प्रमाद हैं अथवा प्रमाद की निष्पत्ति है। अहिंसात्मक जीवन जीने वाला, पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करता । इस भावना ने पर्यावरण संरक्षण में सहयोग किया है। अहिंसा अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक होना है साथ साथ दूसरे जीवों के अस्तित्व के प्रति
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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