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[ जैन विद्या और विज्ञान
सीख दो, विवेक दो। दूसरे की ज्ञान शक्ति का उद्घाटन करो, दूसरे का निर्माण करो। शक्ति का नियोजन करो और दूसरे का निर्माण करो, यह मैत्री का व्यावहारिक रूप है कि आप में कोई विशेषता है तो उसे अपने तक सीमित मत रखो। उसका उपयोग करो और दूसरे को भी बताओ। दूसरे को बताना बहुत बड़ी बात है। अनेक लोग अपना ज्ञान दूसरों को सिखाते हैं। क्यों ? इसलिए कि इससे उसका और अपना भी हित होगा, भला होगा। एक गुरु अपने शिष्य को आगे बढ़ाता है, तैयार करता है। यह मैत्री का प्रयोग है। आत्म-तुला के सिद्धान्त को सामने रखें, सब जीवों को अपने समान समझें, उनके विकास का प्रयत्न करें, उनके उत्थान का प्रयत्न करें, उन्हें उठाएं, उन्हें कुछ दें।
आचार्य भिक्षु के दर्शन को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि- किसी को कष्ट न पहुंचाना, किसी का अहित न करना, किसी को हानि न पहुंचाना, सबसे बड़ी मैत्री है। सबके साथ हम यही मैत्री कर सकते हैं। यह प्रायोगिक मैत्री है। यदि कोई व्यक्ति सब जीवों के साथ व्यक्तिगत मैत्री करना चाहे तो नहीं कर सकता। उसकी सीमा होगी। इसकी व्याख्या में मैत्री दो प्रकार की बताई है।
(i) जो हित साधने वाली मैत्री है, वह सीमा की मैत्री होगी। (ii) दूसरों का अहित न करने वाली मैत्री है, वह सार्वजनिक
मैत्री होगी। हम मैत्री के व्यापक अर्थ को समझें और मैत्री का यथाशक्ति प्रयोग करें तभी 'मित्ती मे सव्वभूएसु-सबके साथ मेरी मैत्री हो' फलित होगी।
में सभी जीवों के प्रति मैत्री की भावना रखना अत्यंत विस्तार वाला तथा कठिन कार्य है क्योंकि जैनों ने पृथ्वी, पानी, जल, अग्नि और वनस्पति में भी जीव (आत्म-तत्त्व) को माना है। आचारांग सूत्र में उल्लेख है कि पृथ्वी आदि स्थावर (गतिहीन) जीवों में प्राणों का स्पंदन है ; पर इन चर्म-चक्षुओं से हम देख नहीं पाते। मूर्च्छित मनुष्य की चेतना जैसे बाहर से लुप्त होती है वैसे ही स्त्यानगृद्धि निद्रा के सतत् उदय से उनकी चेतना सतत मूर्च्छित
और बाहर से लुप्त रहती है लेकिन अन्तर में चेतना शून्य नहीं होती। वे मूर्छित मनुष्य की भांति कष्ट का अनुभव करते हैं।
अतः पृथ्वी आदि स्थावर जीवों को परिताप देना हिंसा है। इसी प्रकार वनस्पति जीव और मनुष्य के चेतन तत्त्व की तुलना निम्न प्रकार से की गई