SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . नया चिन्तन ] [45 'मेरी सभी से मैत्री है। इससे भय और हीनता की भावना उत्पन्न नहीं होती। इस संबंध का एक रोचक कथानक निम्न प्रकार से है। रोचक कथानक 1. एक बार एक योगी ने अपनी साधना के द्वारा इन्द्र को प्रसन्न किया और उसे स्मरण किया। इन्द्र योगी की सेवा में उपस्थित हुआ। योगी ने कहा, 'इन्द्र, मुझे तुम्हारा वज्र चाहिए जिससे मैं जगत का संहार कर सकूँ। इंद्र ने कहा, मुनिवर! इस जगत में आपके मित्र भी होंगे, उनका भी क्या संहार करेंगे ? योगी ने विचलित होते हुए कहा, 'मेरा इस जगत में कोई मित्र नहीं है, सभी शत्र हैं।' योगी की यह बात सुनकर, इन्द्र ने वहां से प्रस्थान किया। स्वर्ग लौटने से पूर्व उन्होंने एक अन्य योगी को देखा और उसके निकट जाकर इंद्र ने कहा, 'मुनिवर! आपके ध्यान-योग में कोई बाधा तो नहीं डालता, आप मेरा वज अपने पास रखें और अपने शत्रुओं का संहार करें। योगी ने अपनी शांत और प्रसन्न मुद्रा में कहा, 'इंद्र मेरा इस जगत में कोई शत्रु नहीं है, सभी मेरे मित्र हैं। मुझे तुम्हारा वज़ नहीं चाहिए। इस वाक्य को सुनकर इंद्र प्रसन्न हुआ और मित्रता के अर्थ को समझ कर प्रस्थान कर गया। 2. कहा जाता है कि चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस एक दिन एकांत में बैठे चिन्तन कर रहे थे। तभी उधर से चीन के सम्राट गुजरे। अपने ध्यान में लीन कन्फ्यूशियस ने सम्राट की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। सम्राट ने इसे अनादर माना और पूछा "तुम कौन हो"। कन्फ्यूशियस ने कहा “मैं सम्राट हूं'। उन्होंने पूछा 'तुम्हारी सेना कहां है। कन्फ्यूशियस ने कहा 'सेना उनको चाहिए, जिनके शत्रु हों, मेरी सबसे मैत्री है। सम्राट नतमस्तक हो गया। हित चिंतन भी करें आचार्य महाप्रज्ञ ने मैत्री के अर्थ को बोधगम्य करते हुए लिखा है कि"मैत्री का दार्शनिक पक्ष है - आत्म-तुला का सिद्धान्त – सबको अपने समान समझें और अपने समान मानें"। इसका प्रायोगिक रूप है - हित चिंतन करो। अपना हित सोचो और दूसरे का हित सोचो। इसका अर्थ है कि - दूसरा कोई अज्ञानी है, उसे ज्ञान की बात बताओ। दूसरा क्या समझता है, उसको
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy