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[ जैन विद्या और विज्ञान
वैर-विरोध न करें
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को यथार्थ के धरातल पर समझाने का प्रयत्न करते हुए कहते हैं कि वैर-विरोध का भाव मस्तिष्क में जहर पैदा करेगा। ईर्ष्या का भाव मन में आया और पेट में अल्सर पैदा हो जाएगा। यह अल्सर किसने पैदा किया? यद्यपि ज्यादा मिर्च नहीं खाई, ज्यादा खट्टी चीजें नहीं खाई, सम्यक् खान-पान चल रहा है फिर भी अल्सर क्यों? इसके समाधान में कहते हैं कि ईर्ष्या की भावना, जलन और कुढ़न मन में हुई और : अल्सर की बीमारी हो गई। ये जितनी मनोकायिक बीमारियां होती हैं, हमारे बुरे विचारों और बुरी भावनाओं के कारण होती हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ की स्पष्ट धारणा है कि मनोविज्ञान को समझने से ही मैत्री का संदर्भ समझ में आ सकेगा। हम किसी के साथ वैर-विरोध न करें
और इसलिए न करें कि वह वैर का विचार, विरोध का विचार स्वयं को ही हानि पहुंचाएगा। यह मैत्री का सिद्धांत बड़ा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत बन जाता है, अपने हित का सिद्धान्त बन जाता है। इसलिए अच्छी बात सोचो, अच्छा काम करो। बुरा विकल्प न करो, अपने प्रति भी और दूसरों के प्रति भी। न आत्महत्या की बात सोचो और न दूसरे की हत्या की बात सोचो। यह सारा मैत्री का सिद्धान्त है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने मनोविज्ञान के आधार से स्व-हित से पर-हित और पर-हित से स्व-हित के बीच जो सामंजस्य किया है, इससे आत्म-तुला के सिद्धान्त को नई भूमिका मिली है। मैत्री का अनुप्रयोग ___वर्तमान में वे अहिंसा-यात्रा पर हैं, पैदल विहार करते हुए सभी जाति और धर्म के अनुयायियों के बीच मैत्री का संदेश प्रसारित कर रहे हैं। आत्मतुला के इस अनुप्रयोग की सराहना हुई है।
भगवान महावीर ने कहा है 'मित्ति मे सव्व भूएसु' अर्थात् सबके साथ मैत्री हो। आचार्य महाप्रज्ञ ने एक अन्य सूत्र के द्वारा मैत्री के पूरे दर्शन को समाहित किया है। वह है -
___ 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए' अर्थात् स्वयं सत्य खोजें, सबके साथ मैत्री करें। प्रेक्षा ध्यान के प्रवर्तन में, इस वाक्य का प्रारम्भ में ही उच्चारण किया जाता है। मैत्री,. प्रेक्षा ध्यान की उप-सम्पदा है, व्यक्ति सदैव अपने भावों में यह प्रकट करता रहता है कि